गुरुवार, 15 अगस्त 2019

15 August Independence Day 2019

गुलशने हिन्द को शोलों से बचाना होगा
आतिशे बुग्ज़ ओ अदावत को बुझाना होगा

हकीकत में आज़ादी का जश्न मनाने के लिए, हर दिल मे प्यार का दीप जलाना होगा

दोहरा में आर हुकूमत के रव्वये में न हो
रंग और नस्ल के भेद मिटाना होगा

याद रखनी हैं शहीदाने वतन की सीरत
सरफरोशी का हुनर हमको दिखाना होगा




हमेशा मुल्क से हो मज़बूत हम सबका रिश्ता
तेरे मेरे की जसारत को मिटाना होगा

आओं हम सभी मिल के साथ चले
हम कदम हो के ख़ज़ाओ को मिटाना होगा

मुल्क ओ मिल्लत के लिए बेहतर हो जो रास्ता जावेद वही रास्ता हम सभी को अपनाना होगा

बुधवार, 14 अगस्त 2019

Mohd Javed swimmer

Mohd Javed swimmer  team news in Amar Ujala 29/08/019

Mohd Javed Swimmer


रेडिसन द स्कूल में रविवार दिनांक 28/07/019 से 30/07/019 को नेशनल यूथ स्पोर्ट्स एंड फिटनेस फेडरेशन द्वारा 1वी उत्तर प्रदेश राज्य खेल प्रतियोगिता 2019 का आयोजन कराया गया। इस प्रतियोगिता में प्रदेश की 20 से अधिक टीमों ने भाग लिया।

इस तीन दिन की प्रतियोगिता में रविवार को 100 मीटर दौड़ में रेडिसन द स्कूल के छात्र दुष्यंत ने स्वर्ण पदक, यश ने रजत पदक और सौरव ने कांस्य पदक जीता।
वही कबडडी प्रतियोगिता में भी रेडिसन द स्कूल की स्कूल टीम के छात्र विराट, दुष्यन्त, अखिल, दीपांशु, निशांत, हर्ष, तेजप्रताप, आदित्य, अभय, शिवम, प्रांजल, निकुंज ने दूसरा स्थान प्राप्त करवा कर स्कूल का नाम रौशन किया


इस प्रतियोगिता को सफलतापूर्वक गौरांवित करने में रेडिसन द स्कूल के  स्पोर्ट्स(कोच) मो० जावेद का कार्य सरहानीय रहा।

बुधवार, 13 मार्च 2019

घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005


घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाओं के अधिकार एवं संरक्षण अधिनियम (भाग-1) इक्कीसवीं शताब्दी के उन्नीसवें वर्ष में दाखिल होने के बाद भी भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में कोई कमी नहीं आई है| देश के किसी भी कोने से कोई भी अखबार उठा कर देख लीजिये, महिलाओं के खिलाफ अपराध की कोई ना कोई खबर अवश्य पढने को मिल जाएगी| व्यथा तो यह है कि बाहर तो दूर, महिलाएं अपने घर की चारदीवारी में भी अपराधों का शिकार हो जाती हैं| महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा के मामले भी आये दिन सामने आते हैं| वर्ष 2005 से पूर्व घरेलू हिंसा के खिलाफ महिलाओं के पास आपराधिक मामला दर्ज़ करने का अधिकार था| ऐसे मामलों में भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498A के अंतर्गत कार्यवाही होती थी| 2005 में 'घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाओं का संरक्षण अधिनियम' पारित हुआ जिसमें कई नए तरीके के अधिकार महिलाओं को दिए गए| धारा 498A का उद्देश्य अपराधी को दण्डित करना है जबकि घरेलू हिंसा अधिनियम का उद्देश्य पीड़ित महिला को रहने की जगह, गुजारा भत्ता, इत्यादि दिलाना है| घरेलू हिंसा अधिनियम पूर्णतया गैर अपराधिक ढंग का कानून है| घरेलू हिंसा अधिनियम का सबसे बड़ा फायदा ये हुआ है की जो महिलाएं पारिवारिक या सामजिक दवाब एवं पुलिस थाने के चक्करों से बचने के कारण अपराधिक कार्यवाही नहीं चाहती हैं वे अब अपने लिए प्रभावी संरक्षण का उपाय कर सकती हैं| तो आइये जानते है इस अधिनियम के मुख्य बिंदु- घरेलू हिंसा क्या है? अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत घरेलू हिंसा को बहुत विस्तृत परिभाषा दी गई है| निम्नलिखित कार्य घरेलू हिंसा की परिभाषा में आते हैं- शारीरिक हिंसा- कोई ऐसा कार्य या आचरण जो महिला शारीरिक पीड़ा, स्वास्थ्य या शरीर को खतरा या महिला के स्वास्थ या शारीरिक विकास को हानि पहुँचाता है वो महिला का शारीरिक हिंसा माना जायेगा| महिला के ऊपर हमला या अपराधिक बल का प्रयोग भी शारीरिक हिंसा माना जायेगा| उदाहरण स्वरुप- महिला के साथ मारपीट करना, बीमार महिला का इलाज न करवाना, इत्यादि| लैंगिक हिंसा- कोई ऐसा कार्य या आचरण तो लैंगिक तरीके से महिला का अपमान या तिरस्कार करता हो अथवा महिला की गरिमा को हानि पहुंचता हो वो लैंगिक हिंसा माना जायेगा| जबरन सम्भोग और वैवाहिक बालात्कार भी लैंगिक हिंसा के दायरे में आयेंगे| मौखिक और भावनात्मक हिंसा- महिला का अपमान या उपहास या तिरस्कार करना और लड़का या संतान न होने को लेकर अपमान करना या उपहास करना मौखिक और भावनात्मक हिंसा माना जायेगा| महिला से गाली गलौज करना, अभद्र भाषा का प्रयोग करना या उसके रिश्तेदारों को नुकसान पहुँचाने की धमकी देना भी इस दायरे में आएगा| आर्थिक दुरुपयोग- किसी भी वित्तीय या आर्थिक संसाधन जिसकी महिला कानूनन रूप से हक़दार या स्त्रीधन या संयुक्त स्वामित्व वाली संपत्ति इत्यादि से महिला को वंचित करना आर्थिक हिंसा माना जायेगा| आसान शब्दों में समझा जाए तो कोई भी ऐसी संपत्ति जिसमे महिला का मालिकाना हक हो उसे बेचना या महिला का मालिकाना हक समाप्त करना भी इसी दायरे में आएगा| ऐसे किसी संसाधन या सुविधा से महिला को वंचित करना या इस्तेमाल में बाधा उत्पन्न करना जिसके इस्तेमाल के लिए महिला हक़दार है, ऐसे कार्य भी इसी दायरे में आते हैं| उदाहरण स्वरुप- साझी गृहस्थी में महिला को पानी, बिजली इत्यादि के उपयोग से रोकना| दहेज़ की मांग- दहेज़ या किसी मूल्यवान संपत्ति की गैर कानूनी मांग करना भी घरेलू हिंसा के दायरे में आता है| इस सम्बन्ध में महिला को क्षति पहुँचाना या उत्पीडन करना भी घरेलू हिंसा के दायरे में आता है| इस सम्बन्ध में महिला के रिश्तेदारों को धमकाने की दृष्टी से महिला का उत्पीडन करना भी घरेलू हिंसा के दायरे में आता है| अन्य किसी तरीके से महिला को मानसिक या शारीरिक क्षति पहुँचाना भी घरेलू हिंसा के दायरे में आता है| पीड़ित महिला कौन है? घरेलू हिंसा अधिनियम केवल शादीशुदा महिलाओं के लिए नहीं बल्कि किसी भी महिला पर लागू होता है| बहनें, माता, भाभी, इत्यादि रिश्तों से जुडी महिलाएं भी इस अधिनियम के तहत पीड़ित महिला की परिभासा में आती हैं| कोई भी महिला जो किसी भी पुरुष के साथ घरेलू सम्बन्ध में रहती हो या रह चुकी हो और घरेलू हिंसा का शिकार हो वो इस अधिनियम के तहत किसी भी समाधान या राहत की मांग कर सकती है| अधिनियम के अंतर्गत घरेलू सम्बन्धका मतलब है की दो व्यक्ति जो एक ही घर में रहते हो या रह चुके हों और रक्त सम्बन्ध, विवाह या एडॉप्शन का रिश्ता रखते हों वे घरेलू सम्बन्ध में माने जायेंगे| संयुक्त परिवार जो एक ही घर में रहता हो वो भी इस परिभाषा के अंतर्गत आएगा| लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिला भी घरेलू हिंसा के खिलाफ इस अधिनियम के अंतर्गत अपने अधिकारों की मांग कर सकती है| सुप्रीम कोर्ट ने 2010 में डी. वेलुसामी बनाम डी. पत्चैअम्मल मामले में इस बात की पुष्टि की है| किसके खिलाफ शिकायत दर्ज कराई जा सकती है? अधिनियम के अंतर्गत पीड़ित महिला किसी भी व्यस्क पुरुष के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकती है जिसके साथ वो घरेलू सम्बन्धमें रही हो या रहती हो| शादीशुदा महिला या लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिला अपने पति या लिव इन पार्टनर या उसके रिश्तेदारों के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकती है| रिश्तेदारों में पुरुष एवं महिला रिश्तेदार दोनों सम्मिलित हैं| घरेलू हिंसा में सम्मिलित व्यक्ति को प्रत्यर्थी या प्रतिवादी बोलते हैं| किसके द्वारा और किसे दर्ज करायी जाये शिकायत? घरेलू हिंसा की शिकायत का अधिकार केवल पीड़ित महिला को ही नहीं है| पीड़ित महिला की ओर से कोई भी व्यक्ति इसके खिलाफ शिकायत दर्ज करवा सकता है| पीड़ित महिला के अलावा उसका कोई भी रिश्तेदार, सामजिक कार्यकर्ता, NGO, पडोसी, इत्यादि भी महिला की ओर से शिकायत दर्ज करवा सकते हैं| शिकायत दर्ज करने के लिए यह ज़रूरी नहीं है की घरेलू हिंसा की घटना हो चुकी हो| अगर किसी को यह अंदेशा है की किसी महिला के ऊपर घरेलू हिंसा की जा सकती है तो इसकी भी शिकायत दर्ज करवाई जा सकती है| इसके अलावा राष्ट्रीय महिला आयोग की वेबसाइट http://ncwapps.nic.in/onlinecomplaintsv2/ पर भी शिकायत दर्ज करवाई जा सकती है| इस वेबसाइट पर शिकायत पंजीकरण करने के साथ ही शिकायत की स्तिथि भी जांच सकते हैं| इसके अलावा 1091 पर भी कॉल करके इसकी शिकायत करी जा सकती है| घरेलू हिंसा की समाधान प्रक्रिया में सरकारी अधिकारियों के अलावा कुछ संस्थाएं भी शामिल होती हैं| समाधान प्रक्रिया की शुरुआत शिकायत से की जाती है| घरेलू हिंसा की शिकायत किसी भी पुलिस अधिकारी, संरक्षण अधिकारी, मजिस्ट्रेट और सेवा प्रदाता के समक्ष की जा सकती है| सेवा प्रदाता वे स्वैच्छिक संस्थाएं एवं कंपनियां हैं जो महिलाओं के हित में कार्य करने के लिए रजिस्टर्ड हैं और अधिनियम के अंतर्गत सेवा रादाता के रूप में रजिस्टर्ड हैं| सेवा प्रदाता के पास घरेलू हिंसा रिपोर्ट बनाने का, पीडिता की चिकित्सीय जांच करने का और पीड़ित महिला को आश्रय दिलाने का अधिकार होता है| मजिस्ट्रेट से आशय है की कोई भी न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम वर्ग जिसके कार्य क्षेत्र के अधीन हिंसा करने वाला व्यक्ति निवास करता हो या जिसके कार्य क्षेत्र के अधीन हिंसा की घटना घटित हुयी हो| संरक्षण अधिकारीइस अधिनियम के अंतर्गत नियुक्त किये जाते हैं और सामान्यतः हर जिले में एक संरक्षण अधिकारी अवश्य होता है| पुलिस अधिकारी, मजिस्ट्रेट और सेवा प्रदाता के कर्त्तव्य जब उपरिलिखित कोई भी व्यक्ति घरेलू हिंसा की कोई शिकायत प्राप्त करता है तो उसके निम्नलिखित कर्त्तव्य हैं- पीड़ित महिला को उसके अधिकारों की जानकारी देना जैसे निवास स्थान का अधिकार, गुजारे भत्ते का अधिकार, क्षतिपूर्ति का अधिकार, संरक्षण का अधिकार और बच्चों की कस्टडी का अधिकार| पीड़ित महिला को उसके निशुल्क कानूनी और विधिक सहायता के अधिकार से अवगत कराना| धारा 498A के अंतर्गत अपराधिक मुकदमा दर्ज करवाने के अधिकार से अवगत कराना| पीड़ित महिला को संरक्षण और सेवा प्रदाताओं की उपलब्धता से अवगत कराना| संक्षेप में कहा जाए तो घरेलू हिंसा अधिनियम एक सिविल (गैर अपराधिक) क़ानून है| इसका उद्देश्य किसी व्यक्ति को सज़ा देना नहीं है बल्कि पीड़ित महिला को त्वरित राहत दिलाना है| इसका उद्देश्य पीड़ित महिला की समस्याएं जैसे आर्थिक समस्याएं, रहने की समस्या, सुरक्षा की समस्या, इत्यादि का समाधान करना है| इसके अलावा जानने की बात यह है की घरेलू हिंसा का पैमाना शारीरिक प्रताड़ना से बढ़कर है| मानसिक प्रताड़ना, आर्थिक दुरुपयोग और भावनात्मक उत्पीडन भी इसी दायरे में आते हैं| एक ख़ास बात यह भी है कि अधिनियम के अंतर्गत केवल शादीशुदा महिला या पत्नियां ही नहीं बल्कि बाकी महिला रिश्तेदार भी राहत की मांग कर सकती हैं|

गुरुवार, 7 मार्च 2019

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 35-A क्या है???


संविधान का अनुच्छेद 35-A क्या है? इसके पीछे के विवाद और इतिहास को संक्षेप में समझिये जहाँ एक ओर उच्चतम न्यायालय में संविधान के अनुच्छेद 35-A की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली दलीलों के एक बैच पर सुनवाई होने की संभावना है, वहीँ यह मुद्दा एक बार फिर आम चर्चा के दौरान गरमाया हुआ है। अनुच्छेद 35-A, जो जम्मू और कश्मीर राज्य के मूल निवासियों को विशेष अधिकार और विशेषाधिकार प्रदान करता है, इसलिए इस मुद्दे पर राजनीतिक नजर भी काफी महत्व रखती है। अनुच्छेद 35-A क्या है? अनुच्छेद 35-A को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल की सिफारिशों पर एक राष्ट्रपति के आदेश के माध्यम से वर्ष 1954 में संविधान में शामिल किया गया था। यह प्रावधान जम्मू-कश्मीर विधायिका को यह तय करने का अधिकार देता है कि राज्य के स्थायी निवासी कौन हैं। इसके अलावा इस अनुच्छेद के जरिये विधायिका को सरकारी नौकरियों, छात्रवृत्ति, सहायता और संपत्ति के अधिग्रहण में अपने विशेष अधिकार और विशेषाधिकार को सुनिश्चित करने का अवसर मिलता है। इस अनुच्छेद के चलते कोई भी व्यक्ति जो जम्मू कश्मीर राज्य का स्थायी निवासी नहीं है, वो राज्य में जमीन नहीं खरीद सकता और न ही जम्मू-कश्मीर में स्थायी रूप से बस सकता है। इसके अंतर्गत राज्य के एक स्थायी निवासी को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है जो 14 मई, 1954 को जम्मू कश्मीर राज्य का विषय था। स्थायी व्यक्ति वो व्यक्ति भी हो सकता है जो 10 साल की अवधि के लिए राज्य में रहा हो, और कानून के दायरे में रहते हुए उसने "राज्य में अचल संपत्ति अर्जित की हो"। इस प्रावधान में यह भी कहा गया है कि अनुच्छेद 35-A के तहत राज्य की विधायिका द्वारा बनाये गए किसी भी अधिनियम को संविधान या किसी अन्य कानून के सापेक्ष चुनौती नहीं दी जा सकती है। और जम्मू एवं कश्मीर के कानूनों को दिए गए 'एक्सेम्पशन' के चलते अनुच्छेद 35-A को भेदभावपूर्ण बताया जाता रहा है, और इसी आधार पर मौजूदा समय में यह मांग बढ़ी है की अनुच्छेद 35-A को असंवैधानिक घोषित किया जाए। अनुच्छेद 35-A को अस्तित्व में लाने का मुख्य कारण? दरअसल जब जम्मू-कश्मीर को भारत में शामिल करने पर जल्दबाज़ी में की गयी बातचीत का दौर चल रहा था तो वहां के महाराजा हरि सिंह, भारत में 'इंस्ट्रूमेंट ऑफ अक्सेशन' के तहत ही शामिल होना चाहते थे। इस इंस्ट्रूमेंट में राज्य के बाहर के किसी भी व्यक्ति को राज्य में संपत्ति खरीदने से रोकना शामिल था। अंततः अक्टूबर 1947 में जम्मू कश्मीर को भारत के राज्य में शामिल किया गया। यह माना जाता है कि हरी सिंह को यह डर था कि आजादी के बाद जम्मू एवं कश्मीर के निवासियों के अलावा अन्य भारतीय भी राज्य में बसने लगेंगे। उन्हें डर था कि मुख्य रूप से पंजाबियों की राज्य में आमद बढ़ जाएगी, जिसके कारण स्थानीय डोगरा समुदाय को अपने रोजगार से हाथ धोना पड़ सकता है। इसके बाद वर्ष 1949 में, राज्य के लोकप्रिय नेता शेख अब्दुल्ला ने नई दिल्ली और जम्मू-कश्मीर के बीच राजनीतिक संबंधों पर बातचीत की, जिसके कारण संविधान में अनुच्छेद 370 (1) (d) को शामिल किया गया, जिसके अंतर्गत रक्षा, विदेशी मामले और राज्य के संचार अधिकार को भारत संघ को दे दिया गया लेकिन राज्य की स्वायत्तता को भारतीय संघ से अलग रखा गया। जैसा की हमने बताया कि अनुच्छेद 35-A को राष्ट्रपति के आदेश के तहत संविधान में शामिल किया गया था। राष्ट्रपति का यह आदेश संविधान के अनुच्छेद 370 (1) (d) के तहत ही जारी किया गया था। यह प्रावधान राष्ट्रपति को जम्मू और कश्मीर के 'राज्य विषयों 'के लाभ के लिए संविधान में कुछ "अपवाद और संशोधन" करने की अनुमति देता है। इसलिए यह साफ है कि अनुच्छेद 35A को जम्मू और कश्मीर के 'स्थायी निवासियों' के लिए भारत सरकार द्वारा विशेष रूप से विचार किए जाने के प्रमाण के रूप में संविधान में जोड़ा गया था। अबतक आपको यह साफ़ हो गया होगा की जम्मू और कश्मीर राज्य सरकार की पूर्व सहमति के साथ ही राष्ट्रपति आदेश के माध्यम से संसद राज्य के अन्य विषयों को लेकर कानून बना सकती है। जहां ऐसे विषय 'इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्ससेशन' से अलग हैं, वहां भी राज्य की संविधान सभा की मंजूरी अनिवार्य थी। अंत में, इस अनुच्छेद के प्रावधान को निष्क्रिय करने वाले आदेश देने के लिए भी राष्ट्रपति को शक्तियां हैं, लेकिन राष्ट्रपति का यह अधिकार केवल राज्य की संविधान सभा की पूर्व सिफारिश पर प्रयोग किया जा सकता है। आखिर क्यों अनुच्छेद 35-A बना हुआ है चर्चा में? अनुच्छेद 35-A का संविधान में शामिल होने का मतलब यह रहा कि केवल जम्मू-कश्मीर विधानसभा ही दो-तिहाई बहुमत से अनुमोदित कानून के माध्यम से स्थायी निवासी की परिभाषा को बदल सकती है। इसी के चलते यह अनुच्छेद विवाद का एक कारण बन गया। यह बहस की जाती है कि कानून बनाने के संसदीय मार्ग को तब दरकिनार कर दिया गया जब राष्ट्रपति ने अपने एक आदेश के जरिये अनुच्छेद 35-A को संविधान में शामिल किया। जैसा की हम जानते हैं कि संविधान का अनुच्छेद 368 (i) केवल संसद को ही संविधान में संशोधन करने का अधिकार देता है। तो सवाल यह उठता कि क्या राष्ट्रपति ने यह आदेश जारी करते वक़्त अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर कार्य किया? एक सवाल यह भी उठता रहा है कि चूँकि अनुच्छेद 35-A तत्कालीन सरकार द्वारा चर्चा के लिए संसद के समक्ष नहीं रखा गया था इसलिए क्या यह अनुच्छेद 'वोयड' (शून्य) है? इस सम्बन्ध में पूरनलाल लखनपाल बनाम प्रेसिडेंट ऑफ़ इंडिया (1961) मामले में सर्वोच्च न्यायालय की 5-न्यायाधीश पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 370 को 'संशोधित' करने के लिए राष्ट्रपति की शक्तियों पर चर्चा की थी। यद्यपि न्यायालय ने इस निर्णय में यह कहा कि राष्ट्रपति अनुच्छेद 370 के तहत संविधान में एक मौजूदा प्रावधान को संशोधित कर सकते हैं, लेकिन यह निर्णय इस बात को लेकर कुछ नहीं कहता है कि क्या राष्ट्रपति संसद के ज्ञान के बिना, एक नया अनुच्छेद संविधान में प्रस्तुत कर सकते हैं। यह सवाल अबतक अनुत्तरित है। सुप्रीम कोर्ट में 35-A से जुड़ी याचिकाएं A - NGO वी दी सिटीजन्स (We the Citizens) द्वारा दायर एक रिट याचिका इस याचिका में अनुच्छेद 35-A और अनुच्छेद 370 दोनों की वैधता को चुनौती दी गयी है। यह तर्क दिया गया है कि कश्मीर के 4 प्रतिनिधि, भारत के संविधान के प्रारूप निर्माण में शामिल थे लेकिन जम्मू और कश्मीर राज्य को उक्त समय कोई विशेष दर्जा हासिल नहीं हुआ था। याचिका में यह भी कहा गया है कि अनुच्छेद 370 जम्मू और कश्मीर में सामान्यता लाने और उस राज्य में लोकतंत्र को मजबूत करने में मदद करने के लिए केवल एक 'अस्थायी प्रावधान' के तौर पर शामिल किया गया था। संविधान निर्माताओं का उद्देश्य यह नहीं था कि अनुच्छेद 370 को संविधान में लाकर अनुच्छेद 35-A जैसे स्थायी संशोधन का निर्माण किया जाये।
याचिका में कहा गया है कि जम्मू-कश्मीर भारत सरकार अधिनियम, 1935 के तहत भारत में पहले से ही शामिल हो गया था। एनजीओ द्वारा दायर याचिका के अनुसार, डोगरा शासक महाराजा हरि सिंह द्वारा "संदेह, भ्रम या अस्पष्टता को दूर करने" के लिए भारत संघ में प्रवेश के नए नियमों पर हस्ताक्षर किए गए थे (अक्टूबर 1947 में इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्ससेशन के जरिये)। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ। राजेंद्र प्रसाद द्वारा पारित आदेशों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए, याचिका में कहा गया है कि राष्ट्रपति का यह आदेश राज्य के लिए कानून बनाने के लिए संसद की शक्तियों को सीमित करता है। याचिका में आगे यह भी कहा गया है कि अनुच्छेद 35-A "भारत की एकता की भावना" के खिलाफ है क्योंकि यह "भारतीय नागरिकों के वर्ग के भीतर एक वर्ग" बनाता है। अन्य राज्यों के नागरिकों को जम्मू-कश्मीर के भीतर रोजगार प्राप्त करने या संपत्ति खरीदने से प्रतिबंधित करना संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। B - पश्चिम पाकिस्तान शरणार्थी एक्शन कमेटी सेल द्वारा दायर याचिका वर्ष 2015 में, पश्चिम पाकिस्तान शरणार्थी एक्शन कमेटी सेल ने एक रिट याचिका के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट का रुख किया, जिसमें विभाजन के बाद राज्य में बसने वाले शरणार्थियों के मानवाधिकारों के उल्लंघन की बात की गयी है। दरअसल पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थियों के पास राज्य में संपत्ति हासिल करने या वोट करने का अधिकार नहीं है और उन्हें स्थायी निवासियों के रूप में मान्यता भी प्राप्त नहीं है। उनका तर्क है कि उनका अधिकार उन लोगों की तरह होना चाहिए जो पश्चिम पाकिस्तान चले गए लेकिन अंततः वापस लौट आए। राज्य द्वारा पारित वर्ष 1982 के पुनर्वास अधिनियम का उल्लेख करते हुए, याचिकाकर्ताओं ने कहा कि इसने ऐसे व्यक्तियों और उनके बच्चों को स्थायी नागरिकता प्राप्त करने का अधिकार दिया (जो पश्चिम पाकिस्तान चले गए लेकिन अंततः वापस लौट आए)। C - याचिका चारू वली खन्ना द्वारा दाखिल याचिका दिल्ली स्थित कश्मीरी पंडित वकील चारु वली खन्ना की याचिका उनके निजी मसले से जुडी हुई है, पर यह भी अहम् सवाल उठाती है। याचिका में कहा गया है कि अनुच्छेद 35-A पुरुषों का पक्षधर है, चारू वली ने अदालत से कहा था, :जहाँ पुरुष बाहरी व्यक्ति (राज्य के बाहर) से शादी के बाद भी स्थायी नागरिकता का अधिकार नहीं खोते हैं, वहीँ अगर महिलाएं किसी बाहरी व्यक्ति से शादी करती हैं तो वह संपत्ति के ऊपर से अपना अधिकार खो देती हैं। उनका कहना है कि, राज्य के बाहर की एक महिला राज्य के पुरुष निवासी से शादी करने के कारण स्थायी निवासी बन जाती है, लेकिन राज्य के एक स्थायी नागरिक के रूप में जन्म लेने वाली महिला, बाहरी व्यक्ति से शादी करने के बाद अपना अधिकार खो देती है।

किन लोगों को निःशुल्क क़ानूनी सहायता नहीं दी जाएगी???


कैसे मामलों में और किन लोगों को निःशुल्क क़ानूनी सहायता नहीं दी जाएगी? ■निम्नलिखित मामलों में क़ानूनी सहायता नहीं मिलेगी; ●मानहानि, द्वेषपूर्ण अभियोजन, अदालत की अवमानना, झूठे साक्ष्य इत्यादि पर आधारित मामले। ●किसी भी चुनाव से सम्बंधित कोई कार्यवाही। ऐसे मामले जहाँ पर दण्ड की आर्थिक राशि 50 /- रुपये से कम है। ●ऐसे अपराध के मामले जो कि आर्थिक और सामाजिक क़ानून के ख़िलाफ़ हैं। जैसे की ATM से पैसे चोरी करना, राज्य सम्पदा को नुकसान पहुँचना इत्यादि। ●आवेदक व्यक्ति मामले से सम्बंधित ही नहीं हैं। ■निम्नलिखित श्रेणी में आने वाले व्यक्ति को क़ानूनी सहायता नहीं दी जाएगी, और अगर दी जा रही है तो वापस ले ली जाएगी; ●ऐसा व्यक्ति जो कि खुद से सक्षम है और पात्रता मानक को पूरा नहीं करता। ●ऐसा व्यक्ति जिसके आवेदन पत्र में ऐसा कोई तथ्य नहीं है, जिससे कि उसको सहायता दी जाये। ●ऐसा व्यक्ति जो कि गलत तरीके से जैसे दस्तावेज़ में धोखाधड़ी करके निःशुल्क सहायता प्राप्त करना चाहता हो। ●आवेदक द्वारा अधिवक्ता के साथ लापरवाही करना व ग़लत तरीके से पेश आना। आवेदक द्वारा दूसरे वक़ील से मदद लेना। ●आवेदक की मृत्यु हो जाना। लेकिन अगर मामला सिविल है तब उसके उत्तराधिकारी को क़ानूनी सहायता दी जाएगी। ●ऐसी कार्यवाही जो कि क़ानून व क़ानूनी प्रक्रिया का गलत इस्तेमाल सिद्ध हो।

निःशुल्क क़ानूनी सहायता कैसे प्राप्त करें???


◆कोई भी व्यक्ति जो की उपरोक्त में से एक है निःशुक्ल क़ानूनी सहायता पाने के लिए अपने नजदीकी प्राधिकरण, समिति और विधिक सेवा केंद्र में लिखित प्रार्थना पत्र या फिर प्राधिकरण द्वारा जारी किये गए फॉर्म से आवेदन कर सकता है। अगर व्यक्ति लिखने में सक्षम नहीं है, तो वह मौख़िक माध्यम से अपना आवेदन कर सकता है, प्राधिकरण में मौज़ूद अधिकारी उस व्यक्ति की बातों को आवेदन पत्र में लिखेगा। शीला बारसे बनाम स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र में माननीय सर्वोच्च न्यायलय ने कहा है की व्यक्ति की गिरफ़्तारी के तुरंत बाद पुलिस का यह अनिवार्य कर्त्तव्य है कि नजदीकी विधिक सहायता केंद्र में इसकी इत्तला की जाये जिससे की समय रहते अभियुक्त की क़ानूनी सहायता की जा सके। ◆इसके अलावा आप "राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण" जिसे हम NALSA भी बुलाते हैं की वेबसाइट पर जाके देश के किसी भी "विधिक सेवा संस्थान व प्राधिकरण" से क़ानूनी सहायता प्राप्त करने के लिए "ऑनलाइन एप्लीकेशन" फॉर्म ज़रूरी दस्तावेज़ों को अपलोड करके भर सकते हैं। ●क्या हैं ज़रूरी दस्तावेज़? अगर हम जरुरी दस्तावेजों की बात करें तो मुख्य रूप से आपके पास एक एफिडेविट होना चाहिए जिसके साथ में आपका वार्षिक आय प्रमाण पत्र, पहचान पत्र हो। बाकी दस्तावेज़ आपके केस पर निर्भर करेंगे। ध्यान रहे यह कागज़ात विधिक सेवा केंद्र या प्राधिकरण में भी ले जाना और दिखाना ज़रूरी है। ●किस प्रकार की क़ानूनी सहायता दी जाएगी??? ◆आपके लिए एक वक़ील नियुक्त किया जायेगा। ◆कोर्ट की कार्यवाही में जो भी ख़र्च होगा वह दिया जायेगा, जैसे की कोर्ट फीस आदि। ◆कोर्ट के आदेशों की प्रति एवं अन्य दस्तावेज जो भी न्यायालय की कार्यवाही से जुड़े होंगे आपको उपलब्ध कराये जायेंगे। ◆आपके मामले से सम्बन्धी कागजों को तैयार व प्रिंट कराया जायेगा। ◆आपके लिए आपकी भाषा में कोर्ट के आदेशों को अनुवादित भी किया जायेगा आदि।

कौन हैं निःशुल्क क़ानूनी सहायता प्राप्त करने के हक़दार???


कौन हैं निःशुल्क क़ानूनी सहायता प्राप्त करने के हक़दार? 1987 के अधिनियम की धारा 12 अनुसार निम्नलिखित लोग क़ानूनी सहायता पाने के हक़दार हैं- (1) SC / ST (2) महिलायें अथवा बच्चे (3) मानव तस्करी से पीड़ित (4) सामूहिक आपदा जैसे कि बाढ़, सूखा से परेशान व्यक्ति (5) जातीय हिंसा से पीड़ित व्यक्ति (6) वर्ग विशेष पर अत्याचार (पीड़ित व्यक्ति अल्प-संख्यक समुदाय से है.) (7) दिव्यांग (PWD) (8) औद्यौगिक कामगार (9) ऐसे व्यक्ति जिनकी वार्षिक आय 1,00,000 /- रुपये से काम है।

मुफ्त क़ानूनी सहायता आपका अधिकार है


भारतीय संविधान की उद्देशिका (Preamble) के तहत भारत के समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय की बात की गयी है। समाज के सभी वर्गों को भारतीय न्यायिक प्रणाली में न्याय पाने का समुचित एवं सामान अवसरमिले, इसलिए भारतीय संविधान का अनुच्छेद 39 A भारत देश के ग़रीब और पिछड़े वर्ग के लोगों को निःशुल्क कानूनी सहायता प्रदान करता है। निःशुल्क क़ानूनी सहायता का मतलब है किअभियुक्त या प्रार्थी को वक़ील की सेवाएं मुहैया करवाना। सीधे शब्दों में कहा जाये तो अपने देश में ज़्यादातर लोग जो जेलों में बंद हैं और जिनके ऊपर कोर्ट की कार्यवाही चल रही है, वह ग़रीब,अशिक्षित एवं अति पिछड़े वर्ग के लोग हैं। जिनको अपने अधिकारों के बारे में नहीं पता है। जिसकी वजह से वह जेल की यातनाओं का सामना कर रहे हैं। ऐसे में यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि उनको उनके अधिकारों के बारे में न ही सिर्फ बताया जाये बल्कि क़ानूनी सहायता भी प्रदान की जाये। इन्हीं बातों पर जोर देते हुये माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने "कार्ति II बनाम स्टेटऑफ़ बिहार" में यह निर्णय दिया कि- "न्यायाधीश का यह संवैधानिक दायित्व है कि जब भी किसी असक्षम एवं आर्थिक रूप से असहाय अभियुक्त को उनके सामने प्रस्तुत किया जाये, तब वह सर्वप्रथम यह सुनिश्चित कर लें कि अभियुक्त को निःशुल्क क़ानूनी सहायता वकील के माध्यम से मिल रही है कि नहीं,अगर नहीं मिल रही है तो वक़ील का प्रबंध किया जाये, जिसका ख़र्च राज्य के कोष से वहन किया जायेगा।" तो चलिए इस लेख के माध्यम से जानने की कोशिश करते हैं की निःशुल्क क़ानूनी सहायता देने के लिए अभी तक सरकार द्वारा क्या व्यवस्था की गयी है,और वह कौन लोग हैं जो इसके पात्र हैं, और जो इसके पात्र नहीं हैं, साथ ही किन दस्तावेजों की जरूरत पड़ेगी, औरआवेदन करने के लिए कहाँ पर जाना पड़ेगा। जिससे की आपको एवं आपके जानने वालों को निःशुक्ल क़ानूनी सहायता आसानी से मिल सके। संस्थागत व्यवस्था क्या है ? सन 1987 में भारतीय संसद ने "विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987" को पारित किया जो कि 9 नवंबर 1995 को पूरे देश में लागू किया गया। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य है कि सभी को न्याय पाने का समान अवसर मिले। समाज का कोई व्यक्ति न्याय पाने से इसलिए वंचित न रह जाये कि वह ग़रीब, दिव्यांग, पिछड़े या फिर अति पिछड़े वर्ग से है। इसलिए इस अधिनियम के माध्यम से क्रमशः राष्ट्रीय, राज्य एवं जिला स्तर पर "विधिक सेवा प्राधिकरण" आपको निःशुल्क क़ानूनी सहायता प्रदान करने के लिए बनाये गए हैं- (1) अगर वादी या प्रतिवादी का मुक़दमा माननीय सर्वोच्च न्यायलय में चल रहा है, तब वह "राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण" में, या फ़िर सर्वोच्च न्यायलय की "विधिक सेवा समिति" में जाकर क़ानूनी सहायता प्राप्त कर सकता है। आपके लिए दोनों विकल्प खुले हुए हैं। (2) अब अगर आपका मामला किसी राज्य के माननीय उच्च न्यायालय में चल रहा है, तब आप अगर चाहें तो उच्च न्यायालय द्वारा गठित "विधिक सेवा समिति" या फिर उसी प्रदेश में स्थित "विधिक सेवा प्राधिकरण" से क़ानूनी सहायता ले सकते हैं। इसके बाद आपके मामले से सम्बंधित वकील को आपकी विधिक सेवाओं के लिए नियुक्त कर दिया जायेगा। (3) जिन लोगों का मुक़दमा माननीय जिला न्यायालय में चल रहा है, वह लोग ज़िला विधिक सेवा प्राधिकरण में जा सकते हैं। प्रायः यह प्राधिकरण जिला न्यायालय में ही बनाया जाता है। (4)आपको आपके राजस्व न्यायालय में चलने वाले मामलों में भी क़ानूनी सहायता देने के लिए तहसील स्तर पर "विधिक सेवा प्राधिकरण" शुरू किये गये हैं। (5)क़ानून की पढ़ाई करने वाले विद्यार्थियों में भी इस बात को पहुँचाने के लिए देश के लगभग सभी विश्वविद्यालयों व संस्थानों में "विधिक सेवा केंद्र" खोले गये हैं। आप यहाँ पर भी जा के अपने मामले से सम्बंधित विधिक परामर्श ले सकते हैं। प्राधिकरणों की ही तरह इन "विधिक सेवा केंद्रों" का भी अपना एक वकीलों का समूह होता है, जिससे की आपको वकील आसानी से मुहैया कराया जा सके।

गुरुवार, 14 फ़रवरी 2019

14 फरवरी का सच और झूठ


पहले भी कई बार देख चुका हूं और इस बार भी देख रहा हु के आज के दिन लोग बोलते है के 14 फरवरी आज के दिन #भगत सिंह और उनके साथियों को फाँसी की सज़ा दी गयी थीं 14 फरवरी यानि कि #ValentinesDay का विरोध करना अपनी जगह हैं लेकिन गलत खबरों के साथ विरोध करना ठीक नही है ये बात हमे अच्छे से याद होनी चाहिए कि शहीद ए आज़म भगत सिंह, राजगुरू और सुखदेव को फांसी 23 मार्च 1931 को हुई थी. 14 तारीख और भगत सिंह का संबंध केवल इतना है कि आज ही के दिन कांग्रेस के तत्कालीन अध्यक्ष मदन मोहन मालवीय ने 14 फरवरी 1931 को भगत सिंह की फांसी रोकने के लिए लॉर्ड इरविन के समक्ष दया याचिका दाखिल की थी, जिसे खारिज कर दिया गया था।

मंगलवार, 29 जनवरी 2019

बीते दिनों सीबीआई में हुई उठापटक की सारी जानकारी जानिए संक्षेप में


सीबीआई में पिछले 3 महीनों से उठापटक का दौर चलता रहा। इस पूरे प्रकरण को संक्षेप में समझाने का यह हमारा प्रयास है। आइये समझते हैं यह पूरा मामला। 12 जुलाई 2018: केंद्रीय सतर्कता आयोग (सीवीसी) ने एक मीटिंग बुलाई जिसमे सीबीआई के अंदर प्रमोशन पर विचार विमर्श होना था। उस मीटिंग में अस्थाना को सीबीआई के नंबर 2 के अधिकारी के रूप में बुलाया गया। इस समय अलोक वर्मा विदेश दौरे पर थे, जब उन्हें इस बारे में जानकारी मिली तो उन्होंने सीवीसी को लिखा कि उन्होंने अस्थाना को अपनी ओर से इन बैठकों में भाग लेने के लिए अधिकृत नहीं किया है। अगस्त 24 2018: अस्थाना ने सीवीसी और कैबिनेट सचिव को लिखते हुए वर्मा द्वारा कथित भ्रष्टाचार का विवरण दिया। अस्थाना ने पत्र में, वर्मा के करीबी और सीबीआई में अतिरिक्त निदेशक, ए. के. शर्मा द्वारा मिलकर कई आरोपी व्यक्तियों को बचाने के उनके प्रयासों का विवरण भी दिया। अस्थाना ने दावा किया कि हैदराबाद के व्यवसायी सतीश बाबू सना ने मोइन कुरैशी मामले में खुद को बचाने के लिए वर्मा को करोड़ों रुपये का भुगतान किया था। सितम्बर-अक्टूबर 2018 में अस्थाना ने एक बार फिरसे सीवीसी को पत्र लिखकर कहा कि वो मोईन कुरैशी मामले में सना को गिरफ़्तार करना चाहते हैं पर वर्मा ऐसा होने नहीं दे रहे हैं। उन्होंने दावा किया कि फरवरी 2018 में भी, जब उनकी टीम ने सना से पूछताछ करने की कोशिश की, तो वर्मा का फोन आया और उन्होंने ऐसा न करने के निर्देश दिए थे। हालाँकि वर्मा की ओर से भी अस्थाना के खिलाफ कई कदम उठाये गए। अस्थाना द्वारा दिल्ली सरकार मामले, IRCTC घोटाला, पी चिदंबरम के खिलाफ जांच की जा रही थी, वर्मा के निर्देश पर इन सभी मामलों को अस्थाना से छीन कर शर्मा को सौंप दिया गया। 04 अक्टूबर 2018: सीबीआई ने सतीश बाबू सना को मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया, और सना ने अपने बयान में यह दावा किया उसने 10 महीने की अवधि में अस्थाना को 3 करोड़ रुपये का भुगतान किया है। सना ने पुलिस उपाधीक्षक सीबीआई अधिकारी, देवेंद्र कुमार को भी रिश्वत देने की बात कही। बाद में देवेंद्र कुमार को गिरफ़्तार भी कर लिया गया। 15 अक्टूबर, 2018: वर्मा ने अस्थाना (सीबीआई में नंबर 2 के अधिकारी) के खिलाफ मामला दर्ज किया। उनपर यह आरोप लगा कि उन्होंने एक व्यापारी को, जिसके खिलाफ सीबीआई की जांच चल रही थी, राहत देने और बदले में क्लीन चिट देने हेतु रिश्वत के रूप में 3 करोड़ रुपये लिए। इन आरोपों के ठीक बाद, अस्थाना ने अपने ऊपर लगाए गए सभी आरोपों का खंडन किया और उल्टा अलोक वर्मा पर यह हमला किया कि उन्होने उसी व्यवसायी से 2 करोड़ रुपये की रिश्वत ली है। उनका यह भी कहना था कि वर्मा ने राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव के खिलाफ भी जांच रोकने की कोशिश की थी। 22 अक्टूबर 2018: वर्मा बनाम अस्थाना मामला एक अजूबे मोड़ पर पहुंच गया। दरअसल सीबीआई ने नई दिल्ली में अपने स्वयं के मुख्यालय की 10वीं मंजिल पर छापा मारा। 23 अक्टूबर 2018: अस्थाना ने सीबीआई द्वारा अपने खिलाफ दर्ज एफआईआर रद्द करवाने के लिए दिल्ली उच्च न्यायालय का रुख किया। दिल्ली उच्च न्यायालय ने सीबीआई को अपने विशेष निदेशक राकेश अस्थाना के खिलाफ कोई भी कठोर कार्रवाई करने से रोक दिया, कोर्ट ने अगली सुनवाई की तारीख 29 अक्टूबर तक यथास्थिति बनाए रखने का आदेश भी दिया। 23-24 अक्टूबर (रात): केंद्र सर्कार द्वारा वर्मा और अस्थाना को छुट्टी पर जाने के लिए कहा गया। वर्मा ने इस सरकारी आदेश के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट का रुख किया। केंद्र सरकार ने वर्मा के स्थान पर एम. नागेश्वर राव, आईपीएस को सीबीआई निदेशक का प्रभार दे दिया। कैबिनेट की नियुक्ति समिति ने संयुक्त निदेशक एम. नागेश्वर राव को तत्काल प्रभाव से जांच एजेंसी के अंतरिम निदेशक के रूप में नियुक्त करदिया। वर्मा को निदेशक पद से हटाने के पीछे का तर्क वर्मा को हटाते हुए कहा गया कि, सीवीसी को 24 अगस्त, 2018 को एक शिकायत प्राप्त हुई जिसमे CBI के वरिष्ठ अधिकारियों के खिलाफ विभिन्न आरोप थे। इसी क्रम में 11 सितंबर, 2018 को तीन अलग-अलग नोटिस (CVC अधिनियम, 2003 की धारा 11 के तहत) निदेशक को दी गयी और उनसे इस सम्बन्ध में आयोग के समक्ष पेपर और डॉक्यूमेंट पेश करने के लिए कहा गया। यह फाइलें और दस्तावेज, 14 सितंबर, 2018 को आयोग के समक्ष पेश किये जाने थे। सीवीसी का कहना है कि कई बार नोटिस भेजे जाने के बावजूद, सीबीआई निदेशक की ओर से कोई जवाब नहीं आया। इसके पश्च्यात सीवीसी ने यह माना कि सीबीआई निदेशक, गंभीर आरोपों से संबंधित आयोग द्वारा मांगे गए रिकॉर्ड/फाइलें उपलब्ध कराने में सहयोग नहीं कर रहे हैं। असाधारण परिस्थितियों को देखते हुए, DPSE (CBI) की कार्यप्रणाली पर अधीक्षण की अपनी शक्तियों (CVC अधिनियम, 2003 की धारा 8) की कवायद में केंद्रीय सतर्कता आयोग द्वारा, जहाँ तक की इसकी जाँच, भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम, 1988 के तहत किए गए अपराध से संबंधित है, श्री आलोक कुमार वर्मा, निदेशक, सीबीआई और श्री राकेश अस्थाना, को उनके कार्यभार से मुक्त करने के आदेश पारित किये गए। इसके बाद भारत सरकार ने सीवीसी द्वारा उपलब्ध कराई गई सामग्री का सावधानीपूर्वक परीक्षण और मूल्यांकन किया और सरकार इस बात को लेकर संतुष्ट हो गयी की सीबीआई में असाधारण स्थिति उत्पन्न हुई है, जो यह मांग करती है कि भारत सरकार डीपीएसई की धारा 4 (2) के तहत अपनी शक्तियों का प्रयोग करे। इन शक्तियों का प्रयोग करते हुए वर्मा और अस्थाना को उनके पद से हटा दिया गया। आगे यह भी कहा गया कि यह कदम एक अंतरिम उपाय के रूप में उठाया गया है और जब तक कि सीवीसी उन सभी मुद्दों पर अपनी जांच समाप्त नहीं कर देता है, जिन्होंने वर्तमान में असाधारण स्थिति को जन्म दिया है, तबतक यह आदेश जारी रहेगा। सुप्रीम कोर्ट में दी गयी ये दलीलें सुप्रीम कोर्ट में अपनी याचिका में वर्मा ने कहा कि सीबीआई निदेशक की नियुक्ति एक उच्चाधिकार प्राप्त समिति द्वारा की जाती है जिसमें डीपीएसई अधिनियम की धारा 4 ए के अनुसार प्रधानमंत्री, विपक्ष के नेता और भारत के मुख्य न्यायाधीश शामिल होते हैं। सीबीआई निदेशक के स्थानांतरण के लिए, इस समिति की स्वीकृति आवश्यक है (धारा 4 बी (2)) के अनुसार। आगे यह भी कहा गया कि उनके स्थानांतरण का आदेश, इस समिति को दरकिनार करते हुए पारित किया गया है। एनजीओ, कॉमन कॉज ने भी ऐसे ही तर्कों के साथ एक याचिका दायर की। अदालत ने वर्मा के खिलाफ सीवीसी की चल रही जांच की निगरानी के लिए पूर्व शीर्ष अदालत के न्यायाधीश ए. के. पटनायक को नियुक्त किया था। वर्मा की याचिका पर केंद्र और सीवीसी को नोटिस जारी करने के अलावा, शीर्ष अदालत ने 26 अक्टूबर को सीबीआई निदेशक के खिलाफ प्रारंभिक जांच पूरी करने के लिए सीवीसी को दो सप्ताह की समय सीमा में रिपोर्ट दाखिल करने को कहा था। अदालत ने आईपीएस अधिकारी, एम. नागेश्वर राव को, जिन्हे सीबीआई निदेशक का अंतरिम प्रभार मिला था, कोई भी बड़ा फैसला लेने से रोक दिया था। जब सीवीसी की यह रिपोर्ट अदालत के समक्ष पेश हुई तो मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि, "सीवीसी ने दस्तावेजों के साथ अपनी रिपोर्ट दर्ज की है। न्यायमूर्ति (ए. के.) पटनायक (सेवनिर्वित्त), जिन्हें जांच का पर्यवेक्षण करने के लिए कहा गया था, अपने नोट में कहते हैं कि आलोक कुमार वर्मा, विशिष्ट तारीखों पर उपस्थित हुए थे और यह उनकी उपस्थिति में हुआ। रिपोर्ट को चार बिंदुओं में वर्गीकृत किया जा सकता है- कुछ आरोपों पर, यह पूरक है, कुछ पर, इतनी पूरक नहीं है, कुछ पर, यह बिलकुल भी पूरक नहीं है, और दूसरे मुद्दों पर, आगे जांच की आवश्यकता है। वर्मा के लिए उपस्थित हुए वकील फली एस. नरीमन ने यह दलील दी कि सीबीआई निदेशक को पीएम पैनल की स्वीकृति के बिना हटाया नहीं जा सकता था और चूँकि सीबीआई निदेशक का पद 2 वर्ष के सुरक्षित होता है, और फिर भी अगर स्थानांतरण की स्थिति उत्पन्न होती है तो उसके लिए पीएम हाई पावर पैनल को इसपर निर्णय लेना होगा। केंद्र की ओर से पेश हुए AG, के. के वेणुगोपाल ने अदालत में यह दलील दी की यह दावा करना पूरी तरह से अनुचित था कि वर्मा को 'स्थानांतरित' कर दिया गया है क्योंकि अगर कोई पूछता है कि सीबीआई निदेशक कौन है तो जवाब 'आलोक वर्मा' है। बस यह हुआ है कि उनकी शक्तियों और कार्यों को फ़िलहाल वापस ले लिया गया है ताकि इस मामले में निष्पक्ष जांच हो सके (सीवीसी द्वारा)। विपक्ष में सबसे बड़ी पार्टी के नेता, मल्लिकार्जुन खड़गे भी इस मामले को लेकर शीर्ष अदालत पहुंच थे। खड़गे, जो तीन सदस्यीय वैधानिक समिति (पीएम हाई पावर पैनल) में भी है, ने कहा कि 23 अक्टूबर के आदेश डीएसपीई अधिनियम की धारा 4 ए और 4 बी के तहत वैधानिक समिति द्वारा प्रदान की गई शक्तियों के उल्लंघन में पारित किए गए थे, जो यह प्रावधान करता है कि सीबीआई निदेशक, पैनल की सिफारिशों पर नियुक्त होता है और उसका स्थानांतरण भी इसी पैनल की सहमति से किया जाएगा। दोनों पक्षों को सुनने के बाद, सुप्रीम कोर्ट ने 6 दिसंबर को इस मामले पर फैसला सुरक्षित रखा था। और फिर आया यह फैसला फिर 8 जनवरी 2019 को एक अहम आदेश में 23-24 अक्टूबर 2018 की रात को सीबीआई निदेशक के रूप में आलोक वर्मा के "रातोंरात" छुट्टी पर भेजे जाने के केंद्र सरकार और सीवीसी के आदेश को सुप्रीम कोर्ट ने रद्द कर उन्हें संस्थान के निदेशक पद पर फिर से बहाल कर दिया था। हालांकि पीठ ने कहा था कि हाईपावर कमेटी का फैसला आने तक वर्मा, निदेशक में तौर पर कोई भी बड़ा नीतिगत व संस्थानिक फैसला या नया कदम नहीं उठाएंगे। फैसला सुनाते हुए भारत के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई की अगुवाई वाली तीन जजों की पीठ ने कहा कि क़ानून न तो सरकार को और न ही केंद्रीय सतर्कता आयोग को यह अधिकार देता है कि वो सीबीआई प्रमुख के कार्यकाल में बाधा पहुंचाएं। ये फैसला मुख्य न्यायाधीश गोगोई द्वारा लिखा गया जो फैसले वाले दिन छुट्टी पर थे। जस्टिस एस। के। कौल और जस्टिस के। एम। जोसेफ ने खुली अदालत में यह फैसला सुनाया था। न्यायमूर्ति कौल ने इस फैसले के अंश पढ़े। फैसले में वर्मा के उस तर्क को सही ठहराया गया था जिसमे उन्होंने कहा था कि उन्हें प्रधान मंत्री, भारत के मुख्य न्यायाधीश और विपक्ष के नेता की उच्चाधिकार प्राप्त समिति की, जिसे डीएसपीई अधिनियम के तहत सीबीआई निदेशक की नियुक्ति की सिफारिश करने का वैधानिक अधिकार है, पूर्वानुमति के बिना सीबीआई के निदेशक पद से हटाया नहीं जा सकता है। क़ानून ने न तो सीवीसी को और न ही सरकार को उनके कार्यों और कर्तव्यों से विमुख करने की शक्ति दी है। कोर्ट ने यह भी कहा था कि वर्मा पर फैसला करने के लिए उच्चाधिकार प्राप्त समिति को एक सप्ताह के भीतर बैठक करनी है। अदालत ने अपने फैसले में यह भी कहा कि डीएसपीई अधिनियम में संशोधन करने और सीबीआई निदेशक की नियुक्ति की सिफारिश करने के लिए पीएम पैनल को सशक्त बनाने के पीछे की विधायी मंशा, राज्य और राजनीतिक दबाव से सीबीआई के कामकाज को मुक्त करना है। इस बीच कोर्ट ने डीएसपीई एक्ट के अनुसार सीबीआई निदेशक के 'स्थानांतरण' की व्याख्या को भी विस्तारित कर दिया था, जिसका अर्थ है उनकी शक्तियों को सीमित करना। अधिनियम की धारा 4 में उनके वैधानिक दो साल के कार्यकाल समाप्त होने से पहले, सीबीआई से स्थानांतरित करने के लिए पीएम पैनल की पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता है। उनके कार्यकाल में कोई भी बदलाव, चाहे सीबीआई निदेशक का स्थानांतरण हो या उनका अधिकार सीमित करने का कदम हो, पीएम पैनल की पूर्व स्वीकृति के साथ ही लिया जाएगा। फिर हुई पीएम पैनल की बैठक (10-01-2019) सुप्रीम कोर्ट के बहाल करने के कुछ ही घंटे बाद आलोक वर्मा को सीबीआई के निदेशक पद से हटा दिया गया। प्रधान मंत्री, सुप्रीम कोर्ट के जज जस्टिस ए के सीकरी और विपक्ष में सबसे बड़ी पार्टी के नेता मल्लिकार्जुन खड़गे की उच्चाधिकार प्राप्त समिति ने गुरुवार को हुई मीटिंग में ये फैसला लिया। हालांकि खड़गे की राय इस मामले में अलग रही। इससे पहले आलोक वर्मा पर फैसले के लिए प्रधानमंत्री और नेता विपक्ष की हाई पावर कमेटी की बैठक में चीफ जस्टिस ने सुप्रीम कोर्ट में वरिष्ठता में दूसरे क्रम के जज जस्टिस ए के सीकरी को नामांकित किया था। समझा जाता है कि चीफ जस्टिस ने इसलिए ये फैसला किया है क्योंकि उन्होंने आलोक वर्मा को छुट्टी पर भेजे जाने का फैसला सुनाया था। अलोक वर्मा ने दिया इस्तीफ़ा (11-01-2019) हाई पावर कमेटी द्वारा सीबीआई निदेशक के पद से हटाए जाने के बाद आलोक वर्मा ने इस्तीफा दे दिया। हालांकि कमेटी ने उन्हें फायर सेफ्टी, सिविल डिफेंस व होम गार्डस का महानिदेशक बनाया गया था और 31 जनवरी को वो रिटायर होने वाले थे। DoPT के सचिव को लिखे अपने इस्तीफे में वर्मा ने कहा है कि हाई पावर कमेटी ने उन्हें सीवीसी रिपोर्ट पर पक्ष रखने का मौका नहीं दिया जो कि प्राकृतिक न्याय के सिद्धांत के खिलाफ है। यहां तक कि जस्टिस पटनायक के सामने भी वो सीवीसी जांच के दौरान शामिल नहीं हुए थे। उन्होंने कहा कि वो चार दशक के कार्यकाल के दौरान दिल्ली, अंडमान निकोबार, मणिपुर और पुदुचेरी के अलावा तिहाड़ जेल व सीबीआई के निदेशक रह चुके हैं और उनके कार्यकाल में उनपर किसी तरह के आरोप नहीं लगे। सीबीआई के निदेशक के तौर पर उन्होंने संस्थान के हित के लिए कदम उठाए लेकिन जिस तरह संस्थान को तोड़ने के लिए सीवीसी का सहारा लिया गया, उसके बाद इस पहलू पर नए सिरे से विचार करने की जरूरत है। पत्र में ये भी कहा गया है कि भारतीय पुलिस सेवा के अधिकारी के तौर पर तो वो 31 जुलाई, 2017 को ही रिटायर हो चुके हैं। वो सीबीआई निदेशक के पद के दो साल के कार्यकाल के लिए ही सेवा में थे। अब उनको फायर सेफ्टी, सिविल डिफेंस व होम गार्डस का महानिदेशक बनाया गया है जबकि इस पद के कार्यकाल का वक्त वो पार कर चुके हैं।सीबीआई में हालिया उठापटक की सारी जानकारी, संक्षेप में

रविवार, 27 जनवरी 2019

अब आप कर सकते है अपने घर बैठे मोबाइल फ़ोन से FIR


अब एप से दर्ज कराएं ई-एफआईआर, पुलिस ने लांच किया ‘यूपी कॉप एप’ UPCOP UPCOP गाड़ियों की चोरी, लूट की घटनाएं, मोबाइल स्नैचिंग, बच्चों की गुमशुदगी और साइबर अपराध से जुड़े मामलों में अब यूपी पुलिस के मोबाइल एप्लीकेशन ‘यूपी कॉप एप’ के माध्यम से अज्ञात के खिलाफ ई-एफआईआर दर्ज कराई जा सकेगी। विज्ञापन लोग किसी सामान या दस्तावेज के गुम हो जाने की सूचना भी एप के माध्यम से दर्ज करा सकेंगे। इसके लिए उन्हें थानों के चक्कर नहीं काटने पड़ेंगे। डीजीपी ओमप्रकाश सिंह के निर्देश पर ‘यूपी कॉप एप’ आमजन के लिए उपलब्ध कराने के साथ ही फीडबैक भी मांगा गया है। एप को तैयार करने वाले एडीजी तकनीकी सेवा आशुतोष पांडेय ने बताया कि इन मामलों में पीड़ित को थानों के चक्कर लगाने होते हैं और समय से एफआईआर दर्ज न होने पर भारी नुकसान उठाना पड़ता है। ऐसे में इन मामलों की त्वरित एफआईआर की सुविधा शुरू की गई है। संबंधित पुलिस कार्मिकों के डिजिटल हस्ताक्षर के साथ पीड़ित को एफआईआर की कॉपी उसके ई-मेल पर उपलब्ध करा दी जाएगी। पांडेय का दावा है कि एप के माध्यम से एफआईआर दर्ज कराने की सुविधा देने वाला यूपी देश का पहला राज्य है। साइबर अपराध की फौरन शिकायत पर तीन दिन में खाते में आएगा पैसा एडीजी ने बताया कि आरबीआई के दिशा-निर्देशों के अनुसार किसी बैंक खाते से हुए फ्रॉड के मामले में तत्काल शिकायत मिलने पर तीन दिन के अंदर संबंधित व्यक्ति के खाते में राशि रिफंड करने की बाध्यता है। कई बार थाने के कार्यक्षेत्र (इंटरनेट के जरिए फ्रॉड होने के कारण) के विवाद को लेकर तीन दिन के अंदर एफआईआर ही दर्ज नहीं हो पाती। ऐसे में यह एप काफी उपयोगी साबित होगा। इससे न सिर्फ एफआईआर फौरन दर्ज की जाएगी बल्कि बैंक को भी इसकी एक कॉपी भेज दी जाएगी ताकि तीन दिन के अंदर पीड़ित को रिफंड मिल सके। साइबर अपराध के प्रति जागरूक कर रहा एप इस एप पर ई-सुरक्षा के लिए पूरी गाइडलाइन भी उपलब्ध होगी। इसमें एटीएम कार्ड, वन टाइम पासवर्ड, फर्जी फोन कॉल के जरिए होने वाले फ्रॉड को लेकर किस तरह सचेत रहें, यह बताया गया है। एटीएम बूथ में किस तरह की सावधानी बरती जाए, एटीएम से पेमेंट करते समय खास सावधानी बरतने समेत 26 तरह से होने वाले साइबर अपराधों से बचाव के बारे में बताया गया है। एप पर आरबीआई की गाइडलाइन भी दी गई है जिसमें सेफ डिजिटल बैंकिंग और उपभोक्ता की जिम्मेदारी की जानकारी दी गई है। आपके मोबाइल में पूरा थाना इस एप के जरिए एक आम नागरिक भी बीते 24 घंटे में किसी जिले या थानाक्षेत्र में हुई गिरफ्तारी का विवरण देख सकता है। साथ ही बीते 24 घंटे में दर्ज साइबर अपराध से संबंधित अंतिम 10 एफआईआर भी देखी जा सकती हैं, ताकि पता चल सके कि साइबर क्राइम से संबंधित किस तरह के मामले सामने आ रहे हैं। वहीं इनामी बदमाशों, जिला बदर अपराधियों और गुंडा एक्ट के मामलों की सूची भी एप पर उपलब्ध है। थाने, क्षेत्राधिकारी या एसपी के मोबाइल नंबर भी इस एप के ‘कॉल अस बटन’ पर उपलब्ध हैं। अगर आप लांग ड्राइव पर हैं तो यह एप दुर्घटना बहुल क्षेत्र के बारे में भी जानकारी देगा। इसके अलावा किसी तरह की सूचना पुलिस से साझा करने का विकल्प भी इस एप पर है, जहां आपकी पहचान को गोपनीय रखा जाएगा। मोबाइल बताएगा घटनास्थल से थाने की दूरी यदि किसी के साथ किसी अनजान जगह पर कोई घटना होती है, तो उसे थाने का पता और रास्ता भी यह एप बताएगा। इसके लिए जियोफेंसिंग की मदद ली गई है। इसे हर थानाक्षेत्र की सीमा को चिह्नित करके तैयार किया गया है। इसके लिए रिमोट सेंसिंग एप्लीकेशन सेंटर लखनऊ और भास्कराचार्य इंस्टीट्यूट फॉर स्पेस एप्लीकेशंस एंड जीओइंफॉर्मेटिक्स, गांधीनगर गुजरात की मदद ली गई है। 15 लाख रिकॉर्ड डाटाबेस के साथ यह एप देश का सबसे बड़ा एप कहा जा रहा है, जिस पर दर्ज होने वाली हर सूचना को क्राइम एंड क्रिमिनल ट्रैकिंग नेटवर्किंग सिस्टम (सीसीटीएनएस) से जोड़ा गया है। पुलिस से जुड़ी 27 सुविधाएं घर बैठे होंगी उपलब्ध अब पुलिस से संबंधित कुल 27 जनोपयोगी सुविधाएं हासिल करने के लिए लोगों को थानोें के चक्कर नहीं लगाने होंगे। नौकरों का सत्यापन, चरित्र प्रमाण पत्र के लिए आवेदन, एम्पलाई का सत्यापन, धरना-प्रदर्शन, समारोह और फिल्म शूटिंग के लिए परमिशन भी इस एप पर मिल सकेगी। जो दस्तावेज जिलाधिकारी के यहां से जारी होते हैं, उसके लिए एप को ई-डिस्ट्रिक्ट पोर्टल से जोड़ा गया है। वरिष्ठ नागरिकों और दिव्यांगों को भी एप के माध्यम से सहायता उपलब्ध कराई जाएगी। पोस्टमार्टम रिपोर्ट, दुर्व्यवहार की रिपोर्ट, लावारिस लाश, गुमशुदा की तलाश, चोरी गई और रिकवर हुई गाड़ियों की जानकारी भी एप पर उपलब्ध होगी। गृह मंत्रालय एप को कर चुका है पुरस्कृत गृह मंत्रालय ‘यूपी कॉप एप’ को देश का सबसे जनोपयोगी एप बताते हुए इसके लिए प्रदेश के डीजीपी ओमप्रकाश सिंह को सम्मानित भी कर चुका है। आशुतोष पांडेय ने बताया कि इस एप को पब्लिक डोमेन पर डालने के बाद बीते 24 घंटे में लगभग 51 हजार लोगों ने इसे डाउनलोड किया है। आमजन का फीडबैक देखने के बाद इसकी कमियों को दूर किया जाएगा और इसे विधिवत लॉन्च भी कराया जाएगा

गुरुवार, 3 जनवरी 2019

सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा वर्ष 2018 में दिए गए खास फैसले


अब जबकि साल 2018 ख़त्म हो चुका है हम इस बात पर ग़ौर करने जा रहे हैं कि बीता साल कैसे-कैसे क़ानूनी फ़ैसलों का साल रहा है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा इस साल अपने पद से सेवानिवृत्त हुए जबकि न्यायमूर्ति रंजन गोगोई ने उनकी जगह ली। दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने बहुत सारे अहम फ़ैसले दिए जो ऐतिहासिक रहे और विवादित भी, मसलन सबरीमाला मंदिर का फ़ैसला, आधार, समलैंगिकों का मामला, व्यभिचार जैसे फ़ैसले इसी श्रेणी मेंआते हैं। रफ़ाल पर नए मुख्य न्यायाधीश के वर्ष अंत के फ़ैसले ने काफ़ी ज़्यादा बहस को जन्म दिया। प्रस्तुत है ऐसे 35 महत्त्वपूर्ण फ़ैसलों की यह सूची जो सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2018 के दौरान दिए :- सबरीमाला भक्ति में लैंगिक भेदभाव नहीं हो सकता है। सबरीमाला में कोर्ट ने सभी उम्र की महिलाओं के प्रवेश की अनुमति 4:1 से दी। इस पीठ की एकमात्र महिला जज इन्दु मल्होत्रा ने बहुमत के इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपना फ़ैसला दिया। इस फ़ैसले की काफी दिनों से प्रतीक्षा की जा रही थी। [Indian Young Lawyer's Association & Ors. V. State of Kerala & Ors.] समलैंगिकता सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले से दो वयस्कों के बीच सहमति से समलैंगिक सम्बन्धों को आपराधिक मानने वाले 157 साल पुराने क़ानून को अंततः समाप्त कर दिया।ऐसा करते हुए कोर्ट ने आईपीसी की धारा 377 को असंवैधानिक क़रार दे दिया। यह फ़ैसला पाँच जजों की पीठ ने दिया। [Navtej Singh Johar& Ors. V. Union of India] आधार सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने आधार अधिनियम की धारा 33(2), 47 और 57 को समाप्त कर दिया; इससे जुड़े राष्ट्रीय सुरक्षा के अपवाद को भी ग़ैरक़ानूनी क़रार दिया और यह कि निजी क्षेत्र आधार डाटा की माँग नहीं कर सकता। इस फ़ैसके को पीठ के लिए न्यायमूर्ति एके सीकरी ने लिखा जिसे मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्राऔर एएम खानविलकर की सम्मति प्राप्त थी। [Justice K. S. Puttuswamy (Retd.) and Anr V Union of India & Ors.] व्यभिचार इस फ़ैसले से भी सुप्रीम कोर्ट ने 158 साल पुराने इस क़ानून को समाप्त कर दिया। पीठ ने आईपीसी की धारा 497 को ग़ैरक़ानूनी क़रार दिया।इस क़ानून के द्वारा पति को किसी महिला का मालिक समझा जाता था। यह क़ानून व्यभिचार को ग़ैरक़ानूनी मानता था। हालाँकि, कोर्ट ने कहा है कि व्यभिचार को तलाक़ का आधार माना जाएगा। फ़ैसलेमें यह भी कहा गया कि अगर व्यभिचार के कारण पति या पत्नी आत्महत्या करने को उद्यत होते हैं तो व्यभिचार करने वाले पार्टनर को हत्या के लिए उकसाने के जुर्म में आईपीसी की धारा 306 के तहत सज़ा हो सकती है। [Joseph Shine V. Union of India] इच्छामृत्यु गरिमापूर्ण मौत का अधिकार एक मौलिक अधिकार है, इस फ़ैसले ने इस बात को माना। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने इस फ़ैसले में इच्छामृत्यु को सही ठहराया और मृत्यपूर्व वसीयत बनाकर इस बारे में निर्देश देने की अनुमति भी दे दी और कहा कि यह क़ानूनी रूप से वैध होगा। कोर्ट ने यह भी कहा कि गरिमापूर्वक जीना एक मौलिकअधिकार है और इसी तरह भयानक रूप से गम्भीर बीमारी से ग्रस्त और जिसके ठीक होने की कोई संभावना अब नहीं है ऐसे व्यक्ति के मरने की प्रक्रिया को आसान बनाना भी इसका हिस्सा है। [Common Cause (A Regd. Society) V. Union of India & Anr] पदोन्नति में एससी/एसटी के लिए आरक्षण सुप्रीम कोर्ट ने स्पष्ट किया कि एससी/एसटी को सरकारी नौकरियों में पदोन्नति देने के मामले में आरक्षण देने के लिए क्वांटिफिएबल डाटा की ज़रूरत नहीं होगी। इससे पहले 2006 में नागराज मामले में अपने फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि इन्हें प्रोमोशन तभी दिया जा सकता है जब सरकार इनके पिछड़ेपन के बारे मेंक्वांटिफिएबल डाटा दे।पर कोर्ट ने इस मसले को किसी बड़ी पीठ को सौंपने से मना कर दिया। पाँच जजों की पीठ ने क्वांटिफिएबल डाटा की ज़रूरत को इंदिरा साहनी मामले में सुप्रीम के फ़ैसले के ख़िलाफ़ है। [Jarnail Singh v LachhmiNarain Gupta& Ors.] आईपीसी की धारा 498A सुप्रीम कोर्ट ने आईपीसी की धारा 498A के दुरुपयोग को रोकने के लिए राजेश शर्मा मामले में जो दिशानिर्देश जारी किए थे उसमें संशोधन किया और 'कल्याणकारी समिति' की बात को अब नकार दिया। तीन जजों की पीठ ने पहले दिए गए दिशानिर्देश को वापस ले लिया जिसे दो जजों की पीठ ने जारी किया था और जिसमें कहा गया थाकि आईपीसी की धारा 498A के तहत की गई शिकायत पर पहले परिवार कल्याण समिति ग़ौर करेगी और उसके बाद ही आगे की क़ानूनी कार्रवाई होगी। [Social Action Forum For Manav Adhikar V. Union of India] हादिया इस चर्चित मामले में दिए गए अपने फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अपना धर्म बदलना इच्छानुरूप धर्म के चुनाव का मौलिक अधिकार है। सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में अपने फ़ैसले में केरल हाईकोर्ट के फ़ैसले को उलट दिया जिसने हादिया और शफ़िन जहाँ की शादी को इस आधार पर अवैध क़रार दिया था कि शादी के लिए धर्म परिवर्तनकिया गया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा कि हाईकोर्ट संविधान के अनुच्छेद 226 के तहत दोनों की शादी को ग़लत नहीं ठहरा सकता। हालाँकि, उसने NIA को इस मामले में अपनी जाँच जारी रखने को कहा। [Shafin Jahan V. Ashokan K. M. & Ors] अयोध्या अपने इस विवादास्पद मामले में सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा कि इस्माइल फ़ारूक़ी मामले में जो बातें कही गई हैं उसे भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया के आलोक में देखा जाना चाहिए; कोर्ट ने यह भी कहा कि यह अयोध्या के भूमि विवाद मामले में संगत नहीं है। सुप्रीम कोर्ट ने यह फ़ैसला 2:1 से दिया और अयोध्या-राम जन्मभूमि विवाद कोकिसी बड़ी पीठ को सौंपने से मना कर दिया। इस मामले में बहुमत के इस फ़ैसले को न्यायमूर्ति अशोक भूषण ने अपने और मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा के लिए लिखा पर एक अन्य जज न्यायमूर्ति एस अब्दुल नज़ीर ने इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपना फ़ैसला लिखा। बहुमत के फ़ैसले में कहा गया कि इस्माइल फ़ारूक़ी मामले में यह कहना किमस्जिद इस्लाम का अभिन्न हिस्सा नहीं है, को भूमि अधिग्रहण की प्रक्रिया के संदर्भ में समझा जाना चाहिए। [M. Siddiq (D) THR LRS..Mahant Suresh Das & Ors.] सुप्रीम कोर्ट की कार्यवाही का सीधा प्रसारण कोर्ट की कार्यवाही का सीधा प्रसारण आम लोगों के हित में है। सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा कि संविधान के अनुच्छेद 145 के अधीन शीघ्र ही इसके लिए नियमों का निर्धारण किया जाएगा। [Swapnil Tripathi V. Supreme Court of India] रफ़ाल सुप्रीम कोर्ट ने 2015 में हुए रफ़ाल लड़ाकू विमान सौदे की जाँच की अपील की याचिका अस्वीकार कर दी। अदालत ने इस सौदे से सम्बंधित किसी भी पक्ष जैसे, निर्णय लेने की प्रक्रिया, मूल्य निर्धारण और ख़रीद की प्रक्रिया की जाँच की अपील स्वीकार नहीं की।कोर्ट ने कहा कि किस एक व्यक्ति की सोच के आधार पर कोर्ट कोईनिर्णय नहीं ले सकता। कोर्ट ने यह भी कहा कि किसी व्यक्तिगत तथ्यों या परिस्थितियों के आलोक में रक्षा ख़रीद के बारे में न्यायिक पुनरीक्षण का निर्धारण करना होगा। [Manohar Lal Sharma V. Narendra Damodar Das Modi & Ors.] भीड़ हिंसा (LYNCHING) कोर्ट ने भीड़ द्वारा देश भर में लोगों को मार दिए जाने की घटना की निंदा की और इस बारे में दिशानिर्देश जारी किए। न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा की भीड़ तंत्र की डरावनी गतिविधियों को देश में हावी होने की इजाज़त नहीं दी जा सकती हैं। [Tehseen S. Poonawalla V. Union of India & Ors.] पटाखे चलाने के बारे में कोर्ट ने पटाखा चलाने पर पूर्ण प्रतिबंध लगाने से मना कर दिया; पटाखों की ऑनलाइन बिक्री पर रोक लगा दी। कोर्ट ने कहा कि सिर्फ़ ऐसे व्यापारी ही इसकी बिक्री कर सकते हैं जिनके पास लाइसेंस है। इसके अलावा कोर्ट ने उस समय का निर्धारण भी कर दिया जिसके बीच पटाखा छोड़े जा सकते हैं। [Arjun Gopal & Ors. V. Union of India & Ors.] बरी किए जाने के ख़िलाफ़ पीड़ित को अपील का अधिकार एक महत्त्वपूर्ण फ़ैसले में सुप्रीम कोर्ट के न्यायमूर्ति मदन बी लोकुर, एस अब्दुल नज़ीर और दीपक गुप्ता की पीठ ने कहा कि अपील की विशेष अनुमति लिए बिना ही कोई पीड़ित किसी आरोपी के बरी होने के ख़िलाफ़ अपील कर सकता है। [Mallikarjun Kodagali (Dead) ... vs The State Of Karnataka] इसरो के पूर्व वेज्ञानिक नांबी नारायण पर फ़ैसला सुप्रीम कोर्ट ने इसरो के पूर्व वैज्ञानिक नांबी नारायण को ₹50 लाख का मुआवज़ा देने का आदेश दिया। कोर्ट ने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जज न्यायमूर्ति डीके जैन की अध्यक्षता में एक कमिटी का भी गठन कर दिया जिसे उनके ख़िलाफ़ साज़िश में पुलिस की भूमिका की जाँच का ज़िम्मा सौंपा गया। तीन जजों की पीठ ने उनकी याचिका परयह फ़ैसला सुनाया जिन्होंने अपने ख़िलाफ़ केरल पुलिस के शीर्ष अधिकारियों की साज़िश के विरुद्ध कार्रवाई करने की माँग की थी। उन्होंने आरोप लगाया था कि पुलिस ने उनको यातना भी दी थी और उन्हें ग़ैर क़ानूनी ढंग से जेल में बंद कर दिया था। [S. Nambi Narayanan V. Siby Mathews &Ors.] जज लोया के मौत का विवाद सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने जज लोया के मौत की जाँच कराने के बारे में दायर याचिका को ख़ारिज कर दिया। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अध्यक्षता में न्यायमूर्ति डीवाई चंद्रचूड़ और एएम खानविलकर की तीन जजों की पीठ ने सीबीआई के विशेष जज की मौत के इस मामले में दायर कई याचिकाओं पर सुनवाई करते हुएइस मामले की स्वतंत्र जाँच की अर्ज़ी ख़ारिज कर दी। [TehseenPoonawalla V. Union of India & Anr.] एलजी बनाम दिल्ली सरकार इस मामले में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने कहा कि दिल्ली के उप राज्यपाल को दिल्ली सरकार के मंत्रिमंडल की सलाह के अनुरूप कार्य करना होगा। सिर्फ़ भूमि, पुलिस और आम व्यवस्था के मामले में ही उसको अपने विवेक से निर्णय लेने का अधिकार है। पीठ ने कहा कि एलजी हर मामले में अपनी टाँग नहीं अड़ा सकता है।हालाँकि, कोर्ट ने कहा कि एलजी को सरकार के निर्णय के बारे में बताना ज़रूरी है पर हर मामलों में एलजी की अनुमति लेने की ज़रूरत नहीं हैं। कोर्ट ने अपने निर्णय में यह भी कहा कि दिल्ली 'राज्य' नहीं है और उसको संविधान के तहत विशेष अधिकार मिला हुआ है। [Govt. of NCT of Delhi V. Union of India & Anr.] छह माह से अधिक का स्थगन नहीं न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल की अध्यक्षता में सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यों की पीठ ने कहा कि ऐसे सभी दीवानी और आपराधिक मामले में जिन पर स्थगन लगा हुआ है, आज से छह माह पूरे होने पर यह स्थगन स्वतः समाप्त हो जाएगा बशर्ते कि अपवाद स्वरूप किसी मामले में इसे आगे बढ़ाने का आदेश ना दिया हो।पीठ ने यहभी कहा कि अगर किसी मामले में भविष्य में स्थगन दिया जाता है तो यह भी छह महीने की अवधि के बीतने के साथ ही समाप्त हो जाएगा। [Asian Resurfacing of Road Agency Pvt. Ltd.& Anr. VS. Central Bureau of Investigation] जीएसटी की वैधता न्यायमूर्ति एके सीकरी और अशोक भूषण की सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने वस्तु एवं सेवा कर (राज्यों को मुआवज़ा) अधिनियम, 2017 को वैध ठहराया। कोर्ट ने वस्तु एवं सेवा कर मुआवज़ा शुल्क नियम, 2017 को भी सही ठहराया। [Union of India & Anr. V. Mohit Mineral Pvt. Ltd.] एससी/एसटी अधिनियम का दुरुपयोग सुप्रीम कोर्ट की न्यायमूर्ति एके गोयल और यूयू ललित की पीठ ने अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के प्रावधानों का दुरुपयोग रोकने के लिए दिशानिर्देश जारी किए। कोर्ट ने इस अधिनियम के प्रावधानों की पड़ताल के क्रम में कहा कि इस अधिनियम का दुरुपयोग रोकने के लिए अबसरकारी कर्मचारियों को पूर्व अनुमति के बिना इस अधिनियम के तहत गिरफ़्तार नहीं किया जा सकता। [Dr. Subhash Kashinath Mahajan V. State of Maharashtra & Anr.] क़ानून बनाने वाले वक़ील मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अगुवाई में सुप्रीम कोर्ट के तीन जजों एएम खानविलकर और डीवाई चंद्रचूड़ की पीठ ने भाजपा नेता और वक़ील अश्विनी उपाध्याय की याचिका पर अपने फ़ैसले में सांसदों और विधायकों को वक़ील के रूप में प्रैक्टिस करने पर रोक लगाने से मना कर दिया। [Ashwini Kumar Upadhyay V. Union of India & Anr.] उम्मीदवारों को अयोग्य ठहराना सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की अध्यक्षता में आरएफ नरीमन, एएम खानविलकर, डीवाई चंद्रचूड़, और इन्दु मल्होत्रा की पाँच सदस्यों की पीठ ने कहा कि किसी उम्मीदवार के ख़िलाफ़ आपराधिक मामले में आरोपपत्र दाख़िल होने के कारण उसे अयोग्य नहीं ठहराया जा सकता है। पीठ ने यह फ़ैसलाभाजपा नेता और अधिवक्ता अश्विनी उपाध्याय, पूर्व सीईसी जेएम लिंग्दोह और एक एनजीओ पब्लिक इंट्रेस्ट फ़ाउंडेशन की जनहित याचिका पर दिया। [Public Interest Foundation & Ors. V. Union of India & Anr.] मुख्य न्यायाधीश रोस्टर का मास्टर अधिवक्ता शांतिभूषण की याचिका को ख़ारिज करते हुए सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट का मुख्य न्यायाधीश रोस्टर का मालिक है और उसे पीठों के गठन और केसों के बँटवारे का पूरा अधिकार है। शांतिभूषण ने सीजेआई के अधिकारों के विनियमन के बारे में याचिका दायर की थी। [Shanti Bhushan V. Supreme Court of India] एनडीपीएस का जाँच अधिकारी और सूचना देने वाला एक ही नहीं हो सकता सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यों की पीठ ने स्पष्ट किया कि एनडीपीएस मामले की जाँच करने वाला अधिकारी और उसके बारे में सूचना देने वाला अधिकारी अगर एक ही है तो आरोपी को बरी किए जाने का अधिकार है।कोर्ट ने स्पष्ट किया कि ये दोनों ही अधिकारी एक ही व्यक्ति नहीं हो सकता। [Mohan Lal V. State of Punjab] कठुआ कठुआ में आठ साल की एक लड़की के साथ हुए बलात्कार और हत्या मामले में सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले की सुनवाई को पंजाब के पठानकोट सत्र न्यायालय में ट्रांसफ़र कर दिया। पहले इस मामले की सुनवाई जम्मू एवं कश्मीर ज़िला और सत्र अदालत में चल रही थी। [Mohd. Akhtar V. State of Jammu & Kashmir] पूर्व मुख्यमंत्रियों के लिए बंगला नहीं सुप्रीम कोर्ट ने उत्तर प्रदेश राज्य मंत्रियों के वेतन, भत्ते और अतिरिक्त प्रावधान, अधिनियम की धारा 4(3) में किए गए संशोधन को ग़ैर क़ानूनी क़रार दे दिया और पूर्व मुख्यमंत्रियों को इसके तहत बंगला देने के प्रावधान को समाप्त कर दिया। कोर्ट ने कहा की देश में किसी भी पूर्व मुख्यमंत्री को बंगला प्राप्त करने का हक़ नहीं है। [Lok Prahari V. State of Uttar Pradesh & Ors.] भीमा कोरेगाँव सुप्रीम कोर्ट की तीन सदस्यों की पीठ ने भीमा कोरेगाँव मामले में एसआईटी गठित करने की माँग को ख़ारिज कर दिया और कहा कि ये गिरफ़्तारियाँ सरकार की आलोचना की वजह से नहीं हुई हैं। इस मामले का फ़ैसला मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्रा की पीठ ने किया जिसके अन्य सदस्य थे न्यायमूर्ति एएम खानविलकरऔर डीवाई चंद्रचूड़। न्यायमूर्ति चंद्रचूड़ ने बहुमत के इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ अपना फ़ैसला दिया। इस मामले में याचिका प्रसिद्ध इतिहासकार रोमिला थापर ने सामाजिक कार्यकर्ता गौतम नवलखा, वर्नॉन गान्सॉल्वेज़, अरुण फरेरा पी वरवर राव और अधिवक्ता सुधा भारद्वाज की गिरफ़्तारी के ख़िलाफ़ दायर किया था। Not A Case Of Arrest For Dissent, Plea For SIT In BhimaKoregaon Case Turned Down By 2:1 M [Romila Thapar& Ors. Vs Union of India & Ors.] विदेशी विधि फ़र्म न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल और यूयू ललित की सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने एक फ़ैसले में कहा कि विदेशी विधि फ़र्म भारत में अपना कार्यालय स्थापित नहीं कर सकते और न ही 'आते जाते हुए' अपने मुवक्किलों को क़ानूनी सलाह दे सकते हैं। पीठ ने केंद्र और बीसीआई को यह भी कहा कि वे इस बारे में नियम बनाएँ। [Bar Council of India V. A. K. Balaji& Ors.] कर छूट में अस्पष्टता सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा कि अगर कर छूट से संबंधित सूचना में किसी तरह की स्पष्टता है तो इसका लाभ राजस्व विभाग को मिलना चाहिए। कोर्ट ने कहा कि कर में छूट के बारे में किसी भी सूचना को कठोरता से व्याख्या की जानी चाहिए और यह नियम किसके पक्ष में है यह साबित करने का ज़िम्मा करदाता की है। [Commissioner of Customs (Import), Mumbai vs. M/s. Dilip Kumar and Company] स्वतः ज़मानत अगर किसी भी आरोपी के ख़िलाफ़ पुलिस द्वारा दायर आरोप पत्र मजिस्ट्रे ने किसी तकनीकी कारण से वापस कर दिया है तो उस स्थिति में आरोपी को स्वतः ज़मानत का अधिकार प्राप्त है। सुप्रीम कोर्ट के दो सदस्यों की पीठ ने कहा कि कोई भी अदालत सीआरपीसी की धारा 167(2) के तहत रिमांड की अवधि को 90 दिनों से आगेनहीं बढ़ा सकता है। कोर्ट ने कहा की किसी भी कोर्ट को किसी भी व्यक्ति को 90 दिनों से अधिक समय तक बिना आरोपपत्र के जेल में बंद नहीं रख सकता। [Achpal @ Ramswaroop& Anr. V. State of Rajasthan] पेशेवर अदालत प्रबंधक सुप्रीम कोर्ट ने सभी मुख्य ज़िला और सत्र अदालतों में एमबीए डिग्रीधारी पेशेवर अदालत प्रबंधकों की नियुक्ति का निर्देश दिया है ताकि कोर्ट के प्रशासन को सक्षमता से चलाया जा सके। ।कोर्ट ने इस बात पर अफ़सोस ज़ाहिर की कि अदालतों में सुविधाओं के बारे में कोई ध्यान नहीं दिया गया है। [All India Judges Association & Ors. V. Union of India & Ors.] मौत की सजा के ख़िलाफ़ विशेष अनुमति याचिका न्यायमूर्ति एके सीकरी, अशोक भूषण और इंदिरा बनर्जी की सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने कहा कि जिन मामलों में अभियुक्तों को मौत की सज़ा दी गई है उन मामलों में विशेष अनुमति याचिका को बिना कारण बताए ख़ारिज नहीं किया जा सकता। [BabasahebMarutiKamble V. State of Maharashtra] कम दृष्टता वाले एमबीबीएस सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने अपने एक फ़ैसले में कहा कि जिन लोगों को काम दिखाई देता है उन्हें एमबीबीएस में बेंचमार्क विकलांगता कोटे के तहत प्रवेश देने से मना नहीं किया जा सकता। कोर्ट ने कहा कि दिव्यांग व्यक्तियों के अधिकार अधिनियम, 2016 के तहत ऐसे लोगों को प्रवेश दिए जाने का प्रावधान है और इसलिए भारतीय चिकित्सापरिषद ऐसे छात्रों को प्रवेश देने से माना नहीं कर सकता। [PurswaniAshutosh V. Unionof India & Ors.] आपराधिक सुनवाई में गवाहों से पूछताछ न्यायमूर्ति एएम सप्रे और इन्दु मल्होत्रा की सुप्रीम कोर्ट की पीठ ने केरल हाईकोर्ट के एक निर्णय को निरस्त करते हुए कहा कि सीआरपीसी की धारा 231(2) के तहत गवाहों से पूछताछ पर स्थगन देते समय आरोपी के अधिकार और अभियोजन के विशेषाधिकार के बीच संतुलन बनाए रखा जाना चाहिए। [State of Kerala V. Rasheed] कावेरी सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता में तीन जजों की पीठ ने कर्नाटक राज्य को 192 टीएमसी के बदले तमिलनाडु के लिए कावेरी नदी का 177.25 टीएमसी पानी छोड़ने का आदेश दिया। कोर्ट ने इस बारे में कर्नाटक की अपील मान ली। [State of Karnataka vs. State of Tamil Nadu]

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