शुक्रवार, 25 मई 2018

शुक्रवार, 11 मई 2018

सन 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम


सन 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के कारण मेरठ सहित कई बड़े बड़े शहरों में अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत और आजादी के आंदोलन की आग भड़की तो उसकी लपटों से अमरोहा भी अछूता नहीं रहा। यहां के लोगों ने देश भक्ति का परिचय देते हुए कभी न भुलाये जाने वाले कारनामों को अंजाम दिया। थाना व तहसील को आग लगाकर अंग्रेजी अफसरों के दांत खट्टे कर दिए। फिरंगियों के थानेदार व जमादार की हत्या कर दी। अंग्रेजी शासकों द्वारा इस आंदोलन में हिस्सा लेने वालों का तरह तरह से दमन किया गया। उन्हें चौराहों पर फांसी पर लटका दिया या काले पानी की सजा दी गयी। अमरोहा में जंग-ए-आजादी के बारे में इतिहासकार पंडित भुवनेश शर्मा बताते हैं कि मेरठ में फौज की और से अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ बगावत की खबर 12 मई 1857 को अमरोहा पहुंची थी। उस समय मुरादाबाद जिले का प्रबंध जिला मजिस्ट्रेट सीबी साण्डर्स, ज्वाइंट मजिस्ट्रेट जेजे कैम्पबैल तथा जज जेसी विल्सन के हाथ में था। 17 मई को शहर के चु¨नदा प्रभावशाली लोगों की एक बैठक दिल्ली व मेरठ की खबरों के मद्देनजर अमरोहा में उठाये जाने वाले कदम पर विचार के लिए दरगाह हजरत शाह विलायत में हुई। इस बैठक में दीवान सय्यद महमूद अली मुहल्ला दरबारे कलां और दरवेश अली खां के खानदान के लोगों सहित अन्य असरदार खानदानों के लगभग 30 व्यक्ति शामिल हुए। इन लोगों में सय्यद मुहम्मद हुसैन, सय्यद मुहम्मद यूसुफ अली, मौलवी सय्यद तोराब अली, सय्यद मुहम्मद बाकर, सय्यद बशारत हुसैन, सय्यद शब्बीर अली, विलायत अली खां, मौलवी बशारत अली, महरबान अली, सैय्यद अली मुजफ्फर खां, मीर बुनियाद अली, मौलवी करीम बख्श अब्बासी और सय्यद मुहम्मद हसन खां प्रमुख रूप शामिल रहे। कुछ लोगों के विरोध के बावजूद इस बैठक में निर्णय लिया गया कि यदि दिल्ली और मेरठ जैसे हालात जिला मुरादाबाद में भी बन जाते हैं तो अमरोहा में भी अंग्रेज अलमदारी को खत्म कर दिया जाये। इधर जिला मजिस्ट्रेट साण्डर्स 18 मई को मेरठ के लिए रवाना हुआ, वह रजबपुर तक ही पहुंचा कि उसे सूचना मिली कि मुरादाबाद में जेल तोड़कर कैदियों को आजाद कर दिया गया और अंग्रेजी सरकार के खिलाफ बगावत शुरू हो गयी। यह खबर पाकर वह मुरादाबाद वापस लौट आया। 19 मई को सय्यद गुलजार अली निवासी मुहल्ला दरबारे कलां जो मुरादाबाद में वकील थे, जेल से आजाद हुए कैदियों के एक समूह को लेकर रातों-रात अमरोहा आ गये। उनके यहां पहुंचने पर शेख रमजान अली के दरबारे कलां स्थित मकान पर रात भर खुफिया बैठक चलती रही। नतीजतन हजारों लोगों की भीड़ ने 20 मई की सुबह अमरोहा के थाने पर हमला कर दिया जो उस समय मुहल्ला मछरट्टा में स्थित था। यहां आजकल पुलिस चौकी है। इस हमले में थानेदार मीर मदद अली और जमादार शहामत खां का कत्ल कर थाने में आग लगा दी गयी। थाने पर हमले के बाद लोगों ने तहसील पर धावा बोल दिया। तहसील के खजाने से सत्रह हजार रुपया लूट लिया और तमाम दफ्तर का रिकार्ड जलाकर खाक कर दिया। मौजूदा समय में पुलिस चौकी मछरट्टा के दरवाजे के ठीक सामने सड़क के किनारे जो दो कब्र हैं उनमें एक मीर मदद अली थानेदार व दूसरी शहामत खां जमादार की है। इस घटना की सूचना पर जिला मजिस्ट्रेट साण्डर्स ने अमरोहा के हालात सुधारने के लिए राजा गुरु सहाय को 24 मई को अमरोहा भेजा जो उस वक्त मुरादाबाद कलेक्ट्री में नाजिर था। दूसरे दिन 25 मई को जज जेसी विल्सन भी अमरोहा आ पहुंचा। विल्सन के अमरोहा आने की खबर पाकर सय्यद गुलजार अली अमरोहा से चले गये। इधर विल्सन ने बागियों को सबक सिखाने और अंग्रेज अलमदारी को कायम करने के उद्देश्य से सय्यद गुलजार अली आदि के मकानों को तुड़वा कर तहस नहस कर दिया। आजादी की इस लड़ाई में हिस्सा लेने वाले बहुत लोगों को गिरफ्तार किया गया तथा बागयान-ए-अमरोहाके शीर्षक से सैकड़ों विद्रोहियों की एक सूची तैयार की गयी। आजादी की इस लड़ाई में हिस्सा लेने वाले अनेक लोगों की जायदाद जब्त कर ली गई। उन्हें फांसी और काले पानी की सजा दी गई।

गुरुवार, 3 मई 2018

भारत की पहली महिला वकील कॉर्नेलिया सोराबजी

देश में व लंदन में लॉ की प्रैक्टिस करने वाली पहली बैरिस्टर कॉर्नेलिया सोराबजी कॉर्नेलिया सोराबजी (15 नवंबर 1866 - 6 जुलाई 1954) एक भारतीय महिला थी, जो बॉम्बे विश्वविद्यालय से पहली महिला स्नातक, ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में कानून का अध्ययन करने वाली पहली महिला (वास्तव में, किसी भी ब्रिटिश विश्वविद्यालय में अध्ययन करने वाली पहली भारतीय राष्ट्रीय), भारत में पहली महिला वकील , और भारत और ब्रिटेन में कानून का अभ्यास करने वाली पहली महिला। 2012 में, लंदन के लिंकन इन में उनकी प्रतिमा का अनावरण किया गया था। 15 नवंबर, 1866 में महाराष्ट्र के नासिक में जन्मीं कॉर्नेलिया (Cornelia Sorabji) न केवल भारत की पहली महिला वकील हैं, बल्कि देश में व लंदन में लॉ की प्रैक्टिस करनेवाली पहली बैरिस्टर भी हैं. उन्हें देश व समाज सेवा की प्रेरणा उनकी मां से विरासत में मिली. उनकी मां फ्रांसिना फोर्ड नारी शिक्षा की प्रबल पक्षधर थीं. उन्होंने पुणे में लड़कियों की पढ़ाई के लिए कई स्कूल भी खोले. कॉर्नेलिया छह भाइयों में इकलौती बहन थीं. वे लेखिका व सोशल वर्कर भी थीं. **………कार्नेलिया 1892 में नागरिक कानून की पढ़ाई के लिए विदेश गयीं और 1894 में भारत लौटीं. उस समय समाज में महिलाएं मुखर नहीं थीं और न ही महिलाओं को वकालत का अधिकार था। पर कार्नेलिया तो एक जुनून का नाम था। अपनी प्रतिभा की बदौलत उन्होंने महिलाओं को कानूनी परामर्श देना आरंभ किया और महिलाओं के लिए वकालत का पेशा खोलने की माँग उठाई. अंतत: 1907 के बाद कार्नेलिया को बंगाल,बिहार, उड़ीसा और असम की अदालतों में सहायक महिला वकील का पद दिया गया। एक लम्बी जद्दोजहद के बाद 1924 में महिलाओं को वकालत से रोकने वाले कानून को शिथिल कर उनके लिए भी यह पेशा खोल दिया गया। 1929 में कार्नेलिया हाईकोर्ट की वरिष्ठ वकील के तौर पर सेवानिवृत्त हुयीं पर उसके बाद महिलाओं में इतनी जागृति आ चुकी थी कि वे वकालत को एक पेशे के तौर पर अपनाकर अपनी आवाज मुखर करने लगी थीं। यद्यपि 1954 में कार्नेलिया का देहावसान हो गया जब वह लंदन में थी, पर आज भी उनका नाम वकालत जैसे जटिल और प्रतिष्ठित पेशे में महिलाओं की बुनियाद है। 1894 में भारत लौटने पर, सोराबजी ने पर्दानाशीन महिलाओं की ओर से सामाजिक और सलाहकार कार्य में शामिल हो गयीं, जिन्हें बाहर पुरुष दुनिया के साथ संवाद करने से मना किया गया था कई मामलों में, इन महिलाओं की काफी संपत्ति होती थी, लेकिन उनकी रक्षा के लिए आवश्यक कानूनी विशेषज्ञता तक पहुंच नहीं थी। सोराबजी को काठियावाड़ और इंदौर के शासकों के ब्रिटिश एजेंटों से पर्दानशीन की ओर से अनुरोध करने के लिए विशेष अनुमति दी गई थी, लेकिन वह एक महिला के तौर पर अदालत में उनकी रक्षा करने में असमर्थ थीं, उन्हें भारतीय कानूनी व्यवस्था में पेशेवर ओहदा प्राप्त नहीं था। इस स्थिति का समाधान करने की उम्मीद में, सोराबजी ने 1897 में बॉम्बे यूनिवर्सिटी की एलएलबी परीक्षा के लिए खुद को प्रस्तुत किया और 1899 में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के वकील की परीक्षा में भाग लिया। फिर भी, उनकी सफलताओं के बावजूद, सोरबजी को वकील के तौर पर मान्यता नहीं मिली जबतक कि 1923 को महिलाओं को अभ्यास करने से रोकने वाले कानून को नहीं बदला गया।प्रांतीय न्यायालयों में महिलाओं और नाबालिगों का प्रतिनिधित्व करने एक महिला कानूनी सलाहकार प्रदान करने के लिए सोराबजी ने 1902 के शुरू में भारत कार्यालय में याचिका दायर करने की शुरुआत की थी। 1904 में, बंगाल की कोर्ट ऑफ वार्ड में लेडी असिस्टेंट नियुक्त किया गया था और 1907 में इस तरह की प्रतिनिधित्व की आवश्यकता के कारण, सोराबजी बंगाल, बिहार, उड़ीसा और असम के प्रांतों में काम कर रही थीं। अगले 20 साल की सेवा में, अनुमान लगाया गया है कि सोराबजी ने 600 से अधिक महिलाओं और अनाथों को कानूनी लड़ाई लड़ने में मदद की, कभी-कभी कोई शुल्क नहीं लिया। वह बाद में इन मामलों में से कई को अपने कार्य बिटवीन द ट्वाईलाईट्स व दो आत्मकथाओं में लिखेंगी। 1924 में, भारत में महिलाओं के लिए कानूनी पेशा खोला गया था, और सोरबजी ने कोलकाता में अभ्यास करना शुरू कर दिया था। हालांकि, पुरुष पूर्वाग्रह और भेदभाव के कारण, वह अदालत के सामने पेश करने के बजाय मामलों पर राय तैयार करने तक ही सीमित थीं। समाज सुधार तथा कानूनी कार्य के अलावा उन्होने अनेकों पुस्तकों, लघुकथाओं एवं लेखों की रचना भी कीं। उन्होने दो आत्मकथाएँ भी लिखीं - India Calling (1934) तथा India Recalled (1936). • 1902: Love and Life behind the Purdah (short stories concerning life in the zenana (women’s domestic quarters), it is one of the most extensive ethnographic studies ofpurdahnashins to date) • 1904: Sun-Babies: studies in the child-life of India • 1908: Between the Twilights: Being studies of India women by one of themselves (details many of her legal cases while working for the Court of Wards); Social Relations: England and India • 1916: Indian Tales of the Great Ones Among Men, Women and Bird-People (legends and folk tales) • 1917: The Purdahnashin (works on women in purdah) • 1924: Therefore (memoirs of her parents) • 1930: Gold Mohur: Time to Remember (a play) • 1932: A biography of her educationist sister, Susie Sorabji सोरबजी 1929 में उच्च न्यायालय से सेवानिवृत्त हुईं, और लंदन में बस गयीं, सर्दियों के दौरान भारत की यात्रा पर आतीं। 6 जुलाई 1954 को लंदन के मैनोर हाउस में ग्रीन लेन्स पर नॉर्थम्बरलैंड हाउस में अपने लंदन के घर में इनका निधन हो गया

बुधवार, 2 मई 2018

हिन्दू विवाह अधिनियम●●● मुस्लिम विवाह अधिनियम●●● स्पेशल मैरिज एक्ट

1. शादी कितनी तरह से हो सकती है? हिंदू मैरिज एक्ट और मुस्लिम पर्सनल लॉ के अलावा स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत भी शादी की जा सकती है। हिंदू मैरिज एक्ट के तहत जहां दो बालिग हिंदू शादी कर सकते हैं, वहीं मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत इस्लाम धर्म को मानने वाले निकाह करते हैं। स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत किसी भी धर्म के लोग शादी के बंधन में बंध सकते हैं और इसके लिए उन्हें अपना मजहब बदलने की जरूरत नहीं। दोनों का अपना-अपना धर्म शादी के बाद कायम रहता है। शादी चाहे किसी भी तरीके से हो, शादी के बाद पत्नी को तमाम कानूनी अधिकार मिल जाते हैं। 2. स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत किस तरह शादी होती है? अगर लड़का और लड़की दोनों पहले से शादीशुदा न हों, बालिग हों और शादी की सहमति देने लायक मानसिक स्थिति में हों, तो वे स्पेशल मैरिज एक्ट 1954 के तहत शादी कर सकते हैं। शर्त यह भी है कि अगर दोनों हिंदू हैं तो वे प्रोहिबिटेड (प्रतिबंधित नजदीकी रिलेशन यानी भाई-बहन, बुआ, मौसी आदि) व स्पिंडा रिलेशन (पिता की पांच पीढ़ी और मां की तरफ की तीन पीढ़ियां) में न हों। इस एक्ट के तहत विदेशी के साथ भारतीय भी शादी कर सकते हैं। शादी के इच्छुक जोड़े को इलाके के एडीएम ऑफिस में शादी की अर्जी दाखिल करनी होती है। इस अर्जी के साथ उम्र का दस्तावेज देना होता है। यह हलफनामा भी देना होता है कि दोनों बालिग हैं और बिना किसी दबाव के शादी कर रहे हैं। दोनों का फिजिकल वेरिफिकेशन कर उन्हें एक महीने बाद आने के लिए कहा जाता है और इस दौरान नोटिस बोर्ड पर उनके बारे में सूचना चिपकाई जाती है कि दोनों शादी करने वाले हैं। अगर किसी को आपत्ति है तो बताए। नोटिस पीरियड के बाद दोनों को एडीएम के सामने पेश होना होता है। गवाहों के सामने मैरिज रजिस्ट्रार उनसे शपथ दिलवाते हैं और फिर शादी का सर्टिफिकेट जारी कर दिया जाता है। 3. लड़का और लड़की दोनों एक ही धर्म के हों तो भी क्या स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत शादी हो सकती है? स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत कोई भी शादी कर सकता है। यह शादी रजिस्टर्ड होती है और इस शादी के लिए किसी फेरे आदि की जरूरत नहीं होती। बस अगर दोनों हिंदू हैं तो प्रोहिबिटेड और स्पिंडा रिलेशन में न होने की शर्त लागू होती है। 4. अगर दो हिंदू रीति-रिवाज से शादी करना चाहते हैं और उसे रजिस्टर्ड भी कराना चाहते हैं तो फिर क्या करें? दो बालिग विवाह योग्य लोग शादी कर सकते हैं। इनमें से कोई पहले से शादीशुदा नहीं होना चाहिए। अगर पहली पत्नी या पति मर चुका है या फिर तलाकशुदा हैं तो भी शादी कर सकते हैं। शादी हिंदू रीति रिवाज से घर में या फिर मंदिर में हो सकती है। मंदिर में हुई शादी के बाद पुजारी सर्टिफिकेट जारी करता है। शादी के बाद रजिस्ट्रार ऑफ मैरिज के सामने दोनों को आवेदन देना होता है और शादी से संबंधित फोटोग्राफ, शादी का सर्टिफिकेट, अगर शादी घर में हुई है तो कार्ड आदि के साथ रजिस्ट्रार के दफ्तर में शादी रजिस्टर्ड करने के लिए आवेदन दिया जाता है। उस वक्त अगर लड़की चाहे तो अपना सरनेम बदल सकती है। मैरिज रजिस्ट्रार शादी रजिस्टर कर सर्टिफिकेट जारी कर देता है। 5. मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत कौन शादी कर सकता है? क्या कोई हिंदू मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत शादी कर सकता है? मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत दो मुस्लिम ही निकाह कर सकते हैं। अगर उनमें से कोई एक मुस्लिम नहीं है तो पहले उसे अपना धर्म बदलकर इस्लाम अपनाना होगा। इसके लिए अलग से हलफनामा देकर बताना होगा कि वह इस्लाम कबूल कर रहा है। यह हलफनामा काजी के सामने पेश किया जाता है। निकाह से पहले लड़के और लड़की को एक हलफनामा देना होता है कि दोनों मुस्लिम हैं और बालिग हैं। फिर पर्सनल लॉ के तहत निकाह होता है। निकाह के बाद काजी निकाहनामा देता है। उसे भी रजिस्टर कराया जा सकता है। 6. अलग-अलग शादी के तरीके से पत्नी को अपने पति की संपत्ति में किस तरह के अधिकार मिलते हैं? अगर कोई हिंदू मैरिज एक्ट के तहत शादी करता है तो पत्नी को अपने पति की संपत्ति में हिंदू सक्सेशन एक्ट के तहत अधिकार मिलेगा। अगर किसी ने मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत शादी की हो तो उसे मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत अधिकार मिलेगा। अगर किसी ने स्पेशल मैरिज एक्ट के तहत शादी की हो तो पत्नी को इंडियन सक्सेशन एक्ट के तहत ही संपत्ति में अधिकार मिलेगा।

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