बुधवार, 13 मार्च 2019

घरेलू हिंसा से महिला संरक्षण अधिनियम, 2005


घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाओं के अधिकार एवं संरक्षण अधिनियम (भाग-1) इक्कीसवीं शताब्दी के उन्नीसवें वर्ष में दाखिल होने के बाद भी भारत में महिलाओं के खिलाफ अपराधों में कोई कमी नहीं आई है| देश के किसी भी कोने से कोई भी अखबार उठा कर देख लीजिये, महिलाओं के खिलाफ अपराध की कोई ना कोई खबर अवश्य पढने को मिल जाएगी| व्यथा तो यह है कि बाहर तो दूर, महिलाएं अपने घर की चारदीवारी में भी अपराधों का शिकार हो जाती हैं| महिलाओं के खिलाफ घरेलू हिंसा के मामले भी आये दिन सामने आते हैं| वर्ष 2005 से पूर्व घरेलू हिंसा के खिलाफ महिलाओं के पास आपराधिक मामला दर्ज़ करने का अधिकार था| ऐसे मामलों में भारतीय दंड संहिता, 1860 की धारा 498A के अंतर्गत कार्यवाही होती थी| 2005 में 'घरेलू हिंसा से पीड़ित महिलाओं का संरक्षण अधिनियम' पारित हुआ जिसमें कई नए तरीके के अधिकार महिलाओं को दिए गए| धारा 498A का उद्देश्य अपराधी को दण्डित करना है जबकि घरेलू हिंसा अधिनियम का उद्देश्य पीड़ित महिला को रहने की जगह, गुजारा भत्ता, इत्यादि दिलाना है| घरेलू हिंसा अधिनियम पूर्णतया गैर अपराधिक ढंग का कानून है| घरेलू हिंसा अधिनियम का सबसे बड़ा फायदा ये हुआ है की जो महिलाएं पारिवारिक या सामजिक दवाब एवं पुलिस थाने के चक्करों से बचने के कारण अपराधिक कार्यवाही नहीं चाहती हैं वे अब अपने लिए प्रभावी संरक्षण का उपाय कर सकती हैं| तो आइये जानते है इस अधिनियम के मुख्य बिंदु- घरेलू हिंसा क्या है? अधिनियम की धारा 3 के अंतर्गत घरेलू हिंसा को बहुत विस्तृत परिभाषा दी गई है| निम्नलिखित कार्य घरेलू हिंसा की परिभाषा में आते हैं- शारीरिक हिंसा- कोई ऐसा कार्य या आचरण जो महिला शारीरिक पीड़ा, स्वास्थ्य या शरीर को खतरा या महिला के स्वास्थ या शारीरिक विकास को हानि पहुँचाता है वो महिला का शारीरिक हिंसा माना जायेगा| महिला के ऊपर हमला या अपराधिक बल का प्रयोग भी शारीरिक हिंसा माना जायेगा| उदाहरण स्वरुप- महिला के साथ मारपीट करना, बीमार महिला का इलाज न करवाना, इत्यादि| लैंगिक हिंसा- कोई ऐसा कार्य या आचरण तो लैंगिक तरीके से महिला का अपमान या तिरस्कार करता हो अथवा महिला की गरिमा को हानि पहुंचता हो वो लैंगिक हिंसा माना जायेगा| जबरन सम्भोग और वैवाहिक बालात्कार भी लैंगिक हिंसा के दायरे में आयेंगे| मौखिक और भावनात्मक हिंसा- महिला का अपमान या उपहास या तिरस्कार करना और लड़का या संतान न होने को लेकर अपमान करना या उपहास करना मौखिक और भावनात्मक हिंसा माना जायेगा| महिला से गाली गलौज करना, अभद्र भाषा का प्रयोग करना या उसके रिश्तेदारों को नुकसान पहुँचाने की धमकी देना भी इस दायरे में आएगा| आर्थिक दुरुपयोग- किसी भी वित्तीय या आर्थिक संसाधन जिसकी महिला कानूनन रूप से हक़दार या स्त्रीधन या संयुक्त स्वामित्व वाली संपत्ति इत्यादि से महिला को वंचित करना आर्थिक हिंसा माना जायेगा| आसान शब्दों में समझा जाए तो कोई भी ऐसी संपत्ति जिसमे महिला का मालिकाना हक हो उसे बेचना या महिला का मालिकाना हक समाप्त करना भी इसी दायरे में आएगा| ऐसे किसी संसाधन या सुविधा से महिला को वंचित करना या इस्तेमाल में बाधा उत्पन्न करना जिसके इस्तेमाल के लिए महिला हक़दार है, ऐसे कार्य भी इसी दायरे में आते हैं| उदाहरण स्वरुप- साझी गृहस्थी में महिला को पानी, बिजली इत्यादि के उपयोग से रोकना| दहेज़ की मांग- दहेज़ या किसी मूल्यवान संपत्ति की गैर कानूनी मांग करना भी घरेलू हिंसा के दायरे में आता है| इस सम्बन्ध में महिला को क्षति पहुँचाना या उत्पीडन करना भी घरेलू हिंसा के दायरे में आता है| इस सम्बन्ध में महिला के रिश्तेदारों को धमकाने की दृष्टी से महिला का उत्पीडन करना भी घरेलू हिंसा के दायरे में आता है| अन्य किसी तरीके से महिला को मानसिक या शारीरिक क्षति पहुँचाना भी घरेलू हिंसा के दायरे में आता है| पीड़ित महिला कौन है? घरेलू हिंसा अधिनियम केवल शादीशुदा महिलाओं के लिए नहीं बल्कि किसी भी महिला पर लागू होता है| बहनें, माता, भाभी, इत्यादि रिश्तों से जुडी महिलाएं भी इस अधिनियम के तहत पीड़ित महिला की परिभासा में आती हैं| कोई भी महिला जो किसी भी पुरुष के साथ घरेलू सम्बन्ध में रहती हो या रह चुकी हो और घरेलू हिंसा का शिकार हो वो इस अधिनियम के तहत किसी भी समाधान या राहत की मांग कर सकती है| अधिनियम के अंतर्गत घरेलू सम्बन्धका मतलब है की दो व्यक्ति जो एक ही घर में रहते हो या रह चुके हों और रक्त सम्बन्ध, विवाह या एडॉप्शन का रिश्ता रखते हों वे घरेलू सम्बन्ध में माने जायेंगे| संयुक्त परिवार जो एक ही घर में रहता हो वो भी इस परिभाषा के अंतर्गत आएगा| लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिला भी घरेलू हिंसा के खिलाफ इस अधिनियम के अंतर्गत अपने अधिकारों की मांग कर सकती है| सुप्रीम कोर्ट ने 2010 में डी. वेलुसामी बनाम डी. पत्चैअम्मल मामले में इस बात की पुष्टि की है| किसके खिलाफ शिकायत दर्ज कराई जा सकती है? अधिनियम के अंतर्गत पीड़ित महिला किसी भी व्यस्क पुरुष के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकती है जिसके साथ वो घरेलू सम्बन्धमें रही हो या रहती हो| शादीशुदा महिला या लिव इन रिलेशनशिप में रहने वाली महिला अपने पति या लिव इन पार्टनर या उसके रिश्तेदारों के खिलाफ शिकायत दर्ज करा सकती है| रिश्तेदारों में पुरुष एवं महिला रिश्तेदार दोनों सम्मिलित हैं| घरेलू हिंसा में सम्मिलित व्यक्ति को प्रत्यर्थी या प्रतिवादी बोलते हैं| किसके द्वारा और किसे दर्ज करायी जाये शिकायत? घरेलू हिंसा की शिकायत का अधिकार केवल पीड़ित महिला को ही नहीं है| पीड़ित महिला की ओर से कोई भी व्यक्ति इसके खिलाफ शिकायत दर्ज करवा सकता है| पीड़ित महिला के अलावा उसका कोई भी रिश्तेदार, सामजिक कार्यकर्ता, NGO, पडोसी, इत्यादि भी महिला की ओर से शिकायत दर्ज करवा सकते हैं| शिकायत दर्ज करने के लिए यह ज़रूरी नहीं है की घरेलू हिंसा की घटना हो चुकी हो| अगर किसी को यह अंदेशा है की किसी महिला के ऊपर घरेलू हिंसा की जा सकती है तो इसकी भी शिकायत दर्ज करवाई जा सकती है| इसके अलावा राष्ट्रीय महिला आयोग की वेबसाइट http://ncwapps.nic.in/onlinecomplaintsv2/ पर भी शिकायत दर्ज करवाई जा सकती है| इस वेबसाइट पर शिकायत पंजीकरण करने के साथ ही शिकायत की स्तिथि भी जांच सकते हैं| इसके अलावा 1091 पर भी कॉल करके इसकी शिकायत करी जा सकती है| घरेलू हिंसा की समाधान प्रक्रिया में सरकारी अधिकारियों के अलावा कुछ संस्थाएं भी शामिल होती हैं| समाधान प्रक्रिया की शुरुआत शिकायत से की जाती है| घरेलू हिंसा की शिकायत किसी भी पुलिस अधिकारी, संरक्षण अधिकारी, मजिस्ट्रेट और सेवा प्रदाता के समक्ष की जा सकती है| सेवा प्रदाता वे स्वैच्छिक संस्थाएं एवं कंपनियां हैं जो महिलाओं के हित में कार्य करने के लिए रजिस्टर्ड हैं और अधिनियम के अंतर्गत सेवा रादाता के रूप में रजिस्टर्ड हैं| सेवा प्रदाता के पास घरेलू हिंसा रिपोर्ट बनाने का, पीडिता की चिकित्सीय जांच करने का और पीड़ित महिला को आश्रय दिलाने का अधिकार होता है| मजिस्ट्रेट से आशय है की कोई भी न्यायिक मजिस्ट्रेट प्रथम वर्ग जिसके कार्य क्षेत्र के अधीन हिंसा करने वाला व्यक्ति निवास करता हो या जिसके कार्य क्षेत्र के अधीन हिंसा की घटना घटित हुयी हो| संरक्षण अधिकारीइस अधिनियम के अंतर्गत नियुक्त किये जाते हैं और सामान्यतः हर जिले में एक संरक्षण अधिकारी अवश्य होता है| पुलिस अधिकारी, मजिस्ट्रेट और सेवा प्रदाता के कर्त्तव्य जब उपरिलिखित कोई भी व्यक्ति घरेलू हिंसा की कोई शिकायत प्राप्त करता है तो उसके निम्नलिखित कर्त्तव्य हैं- पीड़ित महिला को उसके अधिकारों की जानकारी देना जैसे निवास स्थान का अधिकार, गुजारे भत्ते का अधिकार, क्षतिपूर्ति का अधिकार, संरक्षण का अधिकार और बच्चों की कस्टडी का अधिकार| पीड़ित महिला को उसके निशुल्क कानूनी और विधिक सहायता के अधिकार से अवगत कराना| धारा 498A के अंतर्गत अपराधिक मुकदमा दर्ज करवाने के अधिकार से अवगत कराना| पीड़ित महिला को संरक्षण और सेवा प्रदाताओं की उपलब्धता से अवगत कराना| संक्षेप में कहा जाए तो घरेलू हिंसा अधिनियम एक सिविल (गैर अपराधिक) क़ानून है| इसका उद्देश्य किसी व्यक्ति को सज़ा देना नहीं है बल्कि पीड़ित महिला को त्वरित राहत दिलाना है| इसका उद्देश्य पीड़ित महिला की समस्याएं जैसे आर्थिक समस्याएं, रहने की समस्या, सुरक्षा की समस्या, इत्यादि का समाधान करना है| इसके अलावा जानने की बात यह है की घरेलू हिंसा का पैमाना शारीरिक प्रताड़ना से बढ़कर है| मानसिक प्रताड़ना, आर्थिक दुरुपयोग और भावनात्मक उत्पीडन भी इसी दायरे में आते हैं| एक ख़ास बात यह भी है कि अधिनियम के अंतर्गत केवल शादीशुदा महिला या पत्नियां ही नहीं बल्कि बाकी महिला रिश्तेदार भी राहत की मांग कर सकती हैं|

गुरुवार, 7 मार्च 2019

भारतीय संविधान का अनुच्छेद 35-A क्या है???


संविधान का अनुच्छेद 35-A क्या है? इसके पीछे के विवाद और इतिहास को संक्षेप में समझिये जहाँ एक ओर उच्चतम न्यायालय में संविधान के अनुच्छेद 35-A की संवैधानिक वैधता को चुनौती देने वाली दलीलों के एक बैच पर सुनवाई होने की संभावना है, वहीँ यह मुद्दा एक बार फिर आम चर्चा के दौरान गरमाया हुआ है। अनुच्छेद 35-A, जो जम्मू और कश्मीर राज्य के मूल निवासियों को विशेष अधिकार और विशेषाधिकार प्रदान करता है, इसलिए इस मुद्दे पर राजनीतिक नजर भी काफी महत्व रखती है। अनुच्छेद 35-A क्या है? अनुच्छेद 35-A को भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के मंत्रिमंडल की सिफारिशों पर एक राष्ट्रपति के आदेश के माध्यम से वर्ष 1954 में संविधान में शामिल किया गया था। यह प्रावधान जम्मू-कश्मीर विधायिका को यह तय करने का अधिकार देता है कि राज्य के स्थायी निवासी कौन हैं। इसके अलावा इस अनुच्छेद के जरिये विधायिका को सरकारी नौकरियों, छात्रवृत्ति, सहायता और संपत्ति के अधिग्रहण में अपने विशेष अधिकार और विशेषाधिकार को सुनिश्चित करने का अवसर मिलता है। इस अनुच्छेद के चलते कोई भी व्यक्ति जो जम्मू कश्मीर राज्य का स्थायी निवासी नहीं है, वो राज्य में जमीन नहीं खरीद सकता और न ही जम्मू-कश्मीर में स्थायी रूप से बस सकता है। इसके अंतर्गत राज्य के एक स्थायी निवासी को एक ऐसे व्यक्ति के रूप में परिभाषित किया गया है जो 14 मई, 1954 को जम्मू कश्मीर राज्य का विषय था। स्थायी व्यक्ति वो व्यक्ति भी हो सकता है जो 10 साल की अवधि के लिए राज्य में रहा हो, और कानून के दायरे में रहते हुए उसने "राज्य में अचल संपत्ति अर्जित की हो"। इस प्रावधान में यह भी कहा गया है कि अनुच्छेद 35-A के तहत राज्य की विधायिका द्वारा बनाये गए किसी भी अधिनियम को संविधान या किसी अन्य कानून के सापेक्ष चुनौती नहीं दी जा सकती है। और जम्मू एवं कश्मीर के कानूनों को दिए गए 'एक्सेम्पशन' के चलते अनुच्छेद 35-A को भेदभावपूर्ण बताया जाता रहा है, और इसी आधार पर मौजूदा समय में यह मांग बढ़ी है की अनुच्छेद 35-A को असंवैधानिक घोषित किया जाए। अनुच्छेद 35-A को अस्तित्व में लाने का मुख्य कारण? दरअसल जब जम्मू-कश्मीर को भारत में शामिल करने पर जल्दबाज़ी में की गयी बातचीत का दौर चल रहा था तो वहां के महाराजा हरि सिंह, भारत में 'इंस्ट्रूमेंट ऑफ अक्सेशन' के तहत ही शामिल होना चाहते थे। इस इंस्ट्रूमेंट में राज्य के बाहर के किसी भी व्यक्ति को राज्य में संपत्ति खरीदने से रोकना शामिल था। अंततः अक्टूबर 1947 में जम्मू कश्मीर को भारत के राज्य में शामिल किया गया। यह माना जाता है कि हरी सिंह को यह डर था कि आजादी के बाद जम्मू एवं कश्मीर के निवासियों के अलावा अन्य भारतीय भी राज्य में बसने लगेंगे। उन्हें डर था कि मुख्य रूप से पंजाबियों की राज्य में आमद बढ़ जाएगी, जिसके कारण स्थानीय डोगरा समुदाय को अपने रोजगार से हाथ धोना पड़ सकता है। इसके बाद वर्ष 1949 में, राज्य के लोकप्रिय नेता शेख अब्दुल्ला ने नई दिल्ली और जम्मू-कश्मीर के बीच राजनीतिक संबंधों पर बातचीत की, जिसके कारण संविधान में अनुच्छेद 370 (1) (d) को शामिल किया गया, जिसके अंतर्गत रक्षा, विदेशी मामले और राज्य के संचार अधिकार को भारत संघ को दे दिया गया लेकिन राज्य की स्वायत्तता को भारतीय संघ से अलग रखा गया। जैसा की हमने बताया कि अनुच्छेद 35-A को राष्ट्रपति के आदेश के तहत संविधान में शामिल किया गया था। राष्ट्रपति का यह आदेश संविधान के अनुच्छेद 370 (1) (d) के तहत ही जारी किया गया था। यह प्रावधान राष्ट्रपति को जम्मू और कश्मीर के 'राज्य विषयों 'के लाभ के लिए संविधान में कुछ "अपवाद और संशोधन" करने की अनुमति देता है। इसलिए यह साफ है कि अनुच्छेद 35A को जम्मू और कश्मीर के 'स्थायी निवासियों' के लिए भारत सरकार द्वारा विशेष रूप से विचार किए जाने के प्रमाण के रूप में संविधान में जोड़ा गया था। अबतक आपको यह साफ़ हो गया होगा की जम्मू और कश्मीर राज्य सरकार की पूर्व सहमति के साथ ही राष्ट्रपति आदेश के माध्यम से संसद राज्य के अन्य विषयों को लेकर कानून बना सकती है। जहां ऐसे विषय 'इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्ससेशन' से अलग हैं, वहां भी राज्य की संविधान सभा की मंजूरी अनिवार्य थी। अंत में, इस अनुच्छेद के प्रावधान को निष्क्रिय करने वाले आदेश देने के लिए भी राष्ट्रपति को शक्तियां हैं, लेकिन राष्ट्रपति का यह अधिकार केवल राज्य की संविधान सभा की पूर्व सिफारिश पर प्रयोग किया जा सकता है। आखिर क्यों अनुच्छेद 35-A बना हुआ है चर्चा में? अनुच्छेद 35-A का संविधान में शामिल होने का मतलब यह रहा कि केवल जम्मू-कश्मीर विधानसभा ही दो-तिहाई बहुमत से अनुमोदित कानून के माध्यम से स्थायी निवासी की परिभाषा को बदल सकती है। इसी के चलते यह अनुच्छेद विवाद का एक कारण बन गया। यह बहस की जाती है कि कानून बनाने के संसदीय मार्ग को तब दरकिनार कर दिया गया जब राष्ट्रपति ने अपने एक आदेश के जरिये अनुच्छेद 35-A को संविधान में शामिल किया। जैसा की हम जानते हैं कि संविधान का अनुच्छेद 368 (i) केवल संसद को ही संविधान में संशोधन करने का अधिकार देता है। तो सवाल यह उठता कि क्या राष्ट्रपति ने यह आदेश जारी करते वक़्त अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर कार्य किया? एक सवाल यह भी उठता रहा है कि चूँकि अनुच्छेद 35-A तत्कालीन सरकार द्वारा चर्चा के लिए संसद के समक्ष नहीं रखा गया था इसलिए क्या यह अनुच्छेद 'वोयड' (शून्य) है? इस सम्बन्ध में पूरनलाल लखनपाल बनाम प्रेसिडेंट ऑफ़ इंडिया (1961) मामले में सर्वोच्च न्यायालय की 5-न्यायाधीश पीठ ने संविधान के अनुच्छेद 370 को 'संशोधित' करने के लिए राष्ट्रपति की शक्तियों पर चर्चा की थी। यद्यपि न्यायालय ने इस निर्णय में यह कहा कि राष्ट्रपति अनुच्छेद 370 के तहत संविधान में एक मौजूदा प्रावधान को संशोधित कर सकते हैं, लेकिन यह निर्णय इस बात को लेकर कुछ नहीं कहता है कि क्या राष्ट्रपति संसद के ज्ञान के बिना, एक नया अनुच्छेद संविधान में प्रस्तुत कर सकते हैं। यह सवाल अबतक अनुत्तरित है। सुप्रीम कोर्ट में 35-A से जुड़ी याचिकाएं A - NGO वी दी सिटीजन्स (We the Citizens) द्वारा दायर एक रिट याचिका इस याचिका में अनुच्छेद 35-A और अनुच्छेद 370 दोनों की वैधता को चुनौती दी गयी है। यह तर्क दिया गया है कि कश्मीर के 4 प्रतिनिधि, भारत के संविधान के प्रारूप निर्माण में शामिल थे लेकिन जम्मू और कश्मीर राज्य को उक्त समय कोई विशेष दर्जा हासिल नहीं हुआ था। याचिका में यह भी कहा गया है कि अनुच्छेद 370 जम्मू और कश्मीर में सामान्यता लाने और उस राज्य में लोकतंत्र को मजबूत करने में मदद करने के लिए केवल एक 'अस्थायी प्रावधान' के तौर पर शामिल किया गया था। संविधान निर्माताओं का उद्देश्य यह नहीं था कि अनुच्छेद 370 को संविधान में लाकर अनुच्छेद 35-A जैसे स्थायी संशोधन का निर्माण किया जाये।
याचिका में कहा गया है कि जम्मू-कश्मीर भारत सरकार अधिनियम, 1935 के तहत भारत में पहले से ही शामिल हो गया था। एनजीओ द्वारा दायर याचिका के अनुसार, डोगरा शासक महाराजा हरि सिंह द्वारा "संदेह, भ्रम या अस्पष्टता को दूर करने" के लिए भारत संघ में प्रवेश के नए नियमों पर हस्ताक्षर किए गए थे (अक्टूबर 1947 में इंस्ट्रूमेंट ऑफ़ एक्ससेशन के जरिये)। तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ। राजेंद्र प्रसाद द्वारा पारित आदेशों की संवैधानिक वैधता को चुनौती देते हुए, याचिका में कहा गया है कि राष्ट्रपति का यह आदेश राज्य के लिए कानून बनाने के लिए संसद की शक्तियों को सीमित करता है। याचिका में आगे यह भी कहा गया है कि अनुच्छेद 35-A "भारत की एकता की भावना" के खिलाफ है क्योंकि यह "भारतीय नागरिकों के वर्ग के भीतर एक वर्ग" बनाता है। अन्य राज्यों के नागरिकों को जम्मू-कश्मीर के भीतर रोजगार प्राप्त करने या संपत्ति खरीदने से प्रतिबंधित करना संविधान के अनुच्छेद 14, 19 और 21 के तहत मौलिक अधिकारों का उल्लंघन है। B - पश्चिम पाकिस्तान शरणार्थी एक्शन कमेटी सेल द्वारा दायर याचिका वर्ष 2015 में, पश्चिम पाकिस्तान शरणार्थी एक्शन कमेटी सेल ने एक रिट याचिका के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट का रुख किया, जिसमें विभाजन के बाद राज्य में बसने वाले शरणार्थियों के मानवाधिकारों के उल्लंघन की बात की गयी है। दरअसल पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थियों के पास राज्य में संपत्ति हासिल करने या वोट करने का अधिकार नहीं है और उन्हें स्थायी निवासियों के रूप में मान्यता भी प्राप्त नहीं है। उनका तर्क है कि उनका अधिकार उन लोगों की तरह होना चाहिए जो पश्चिम पाकिस्तान चले गए लेकिन अंततः वापस लौट आए। राज्य द्वारा पारित वर्ष 1982 के पुनर्वास अधिनियम का उल्लेख करते हुए, याचिकाकर्ताओं ने कहा कि इसने ऐसे व्यक्तियों और उनके बच्चों को स्थायी नागरिकता प्राप्त करने का अधिकार दिया (जो पश्चिम पाकिस्तान चले गए लेकिन अंततः वापस लौट आए)। C - याचिका चारू वली खन्ना द्वारा दाखिल याचिका दिल्ली स्थित कश्मीरी पंडित वकील चारु वली खन्ना की याचिका उनके निजी मसले से जुडी हुई है, पर यह भी अहम् सवाल उठाती है। याचिका में कहा गया है कि अनुच्छेद 35-A पुरुषों का पक्षधर है, चारू वली ने अदालत से कहा था, :जहाँ पुरुष बाहरी व्यक्ति (राज्य के बाहर) से शादी के बाद भी स्थायी नागरिकता का अधिकार नहीं खोते हैं, वहीँ अगर महिलाएं किसी बाहरी व्यक्ति से शादी करती हैं तो वह संपत्ति के ऊपर से अपना अधिकार खो देती हैं। उनका कहना है कि, राज्य के बाहर की एक महिला राज्य के पुरुष निवासी से शादी करने के कारण स्थायी निवासी बन जाती है, लेकिन राज्य के एक स्थायी नागरिक के रूप में जन्म लेने वाली महिला, बाहरी व्यक्ति से शादी करने के बाद अपना अधिकार खो देती है।

किन लोगों को निःशुल्क क़ानूनी सहायता नहीं दी जाएगी???


कैसे मामलों में और किन लोगों को निःशुल्क क़ानूनी सहायता नहीं दी जाएगी? ■निम्नलिखित मामलों में क़ानूनी सहायता नहीं मिलेगी; ●मानहानि, द्वेषपूर्ण अभियोजन, अदालत की अवमानना, झूठे साक्ष्य इत्यादि पर आधारित मामले। ●किसी भी चुनाव से सम्बंधित कोई कार्यवाही। ऐसे मामले जहाँ पर दण्ड की आर्थिक राशि 50 /- रुपये से कम है। ●ऐसे अपराध के मामले जो कि आर्थिक और सामाजिक क़ानून के ख़िलाफ़ हैं। जैसे की ATM से पैसे चोरी करना, राज्य सम्पदा को नुकसान पहुँचना इत्यादि। ●आवेदक व्यक्ति मामले से सम्बंधित ही नहीं हैं। ■निम्नलिखित श्रेणी में आने वाले व्यक्ति को क़ानूनी सहायता नहीं दी जाएगी, और अगर दी जा रही है तो वापस ले ली जाएगी; ●ऐसा व्यक्ति जो कि खुद से सक्षम है और पात्रता मानक को पूरा नहीं करता। ●ऐसा व्यक्ति जिसके आवेदन पत्र में ऐसा कोई तथ्य नहीं है, जिससे कि उसको सहायता दी जाये। ●ऐसा व्यक्ति जो कि गलत तरीके से जैसे दस्तावेज़ में धोखाधड़ी करके निःशुल्क सहायता प्राप्त करना चाहता हो। ●आवेदक द्वारा अधिवक्ता के साथ लापरवाही करना व ग़लत तरीके से पेश आना। आवेदक द्वारा दूसरे वक़ील से मदद लेना। ●आवेदक की मृत्यु हो जाना। लेकिन अगर मामला सिविल है तब उसके उत्तराधिकारी को क़ानूनी सहायता दी जाएगी। ●ऐसी कार्यवाही जो कि क़ानून व क़ानूनी प्रक्रिया का गलत इस्तेमाल सिद्ध हो।

निःशुल्क क़ानूनी सहायता कैसे प्राप्त करें???


◆कोई भी व्यक्ति जो की उपरोक्त में से एक है निःशुक्ल क़ानूनी सहायता पाने के लिए अपने नजदीकी प्राधिकरण, समिति और विधिक सेवा केंद्र में लिखित प्रार्थना पत्र या फिर प्राधिकरण द्वारा जारी किये गए फॉर्म से आवेदन कर सकता है। अगर व्यक्ति लिखने में सक्षम नहीं है, तो वह मौख़िक माध्यम से अपना आवेदन कर सकता है, प्राधिकरण में मौज़ूद अधिकारी उस व्यक्ति की बातों को आवेदन पत्र में लिखेगा। शीला बारसे बनाम स्टेट ऑफ़ महाराष्ट्र में माननीय सर्वोच्च न्यायलय ने कहा है की व्यक्ति की गिरफ़्तारी के तुरंत बाद पुलिस का यह अनिवार्य कर्त्तव्य है कि नजदीकी विधिक सहायता केंद्र में इसकी इत्तला की जाये जिससे की समय रहते अभियुक्त की क़ानूनी सहायता की जा सके। ◆इसके अलावा आप "राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण" जिसे हम NALSA भी बुलाते हैं की वेबसाइट पर जाके देश के किसी भी "विधिक सेवा संस्थान व प्राधिकरण" से क़ानूनी सहायता प्राप्त करने के लिए "ऑनलाइन एप्लीकेशन" फॉर्म ज़रूरी दस्तावेज़ों को अपलोड करके भर सकते हैं। ●क्या हैं ज़रूरी दस्तावेज़? अगर हम जरुरी दस्तावेजों की बात करें तो मुख्य रूप से आपके पास एक एफिडेविट होना चाहिए जिसके साथ में आपका वार्षिक आय प्रमाण पत्र, पहचान पत्र हो। बाकी दस्तावेज़ आपके केस पर निर्भर करेंगे। ध्यान रहे यह कागज़ात विधिक सेवा केंद्र या प्राधिकरण में भी ले जाना और दिखाना ज़रूरी है। ●किस प्रकार की क़ानूनी सहायता दी जाएगी??? ◆आपके लिए एक वक़ील नियुक्त किया जायेगा। ◆कोर्ट की कार्यवाही में जो भी ख़र्च होगा वह दिया जायेगा, जैसे की कोर्ट फीस आदि। ◆कोर्ट के आदेशों की प्रति एवं अन्य दस्तावेज जो भी न्यायालय की कार्यवाही से जुड़े होंगे आपको उपलब्ध कराये जायेंगे। ◆आपके मामले से सम्बन्धी कागजों को तैयार व प्रिंट कराया जायेगा। ◆आपके लिए आपकी भाषा में कोर्ट के आदेशों को अनुवादित भी किया जायेगा आदि।

कौन हैं निःशुल्क क़ानूनी सहायता प्राप्त करने के हक़दार???


कौन हैं निःशुल्क क़ानूनी सहायता प्राप्त करने के हक़दार? 1987 के अधिनियम की धारा 12 अनुसार निम्नलिखित लोग क़ानूनी सहायता पाने के हक़दार हैं- (1) SC / ST (2) महिलायें अथवा बच्चे (3) मानव तस्करी से पीड़ित (4) सामूहिक आपदा जैसे कि बाढ़, सूखा से परेशान व्यक्ति (5) जातीय हिंसा से पीड़ित व्यक्ति (6) वर्ग विशेष पर अत्याचार (पीड़ित व्यक्ति अल्प-संख्यक समुदाय से है.) (7) दिव्यांग (PWD) (8) औद्यौगिक कामगार (9) ऐसे व्यक्ति जिनकी वार्षिक आय 1,00,000 /- रुपये से काम है।

मुफ्त क़ानूनी सहायता आपका अधिकार है


भारतीय संविधान की उद्देशिका (Preamble) के तहत भारत के समस्त नागरिकों को सामाजिक, आर्थिक और राजनैतिक न्याय की बात की गयी है। समाज के सभी वर्गों को भारतीय न्यायिक प्रणाली में न्याय पाने का समुचित एवं सामान अवसरमिले, इसलिए भारतीय संविधान का अनुच्छेद 39 A भारत देश के ग़रीब और पिछड़े वर्ग के लोगों को निःशुल्क कानूनी सहायता प्रदान करता है। निःशुल्क क़ानूनी सहायता का मतलब है किअभियुक्त या प्रार्थी को वक़ील की सेवाएं मुहैया करवाना। सीधे शब्दों में कहा जाये तो अपने देश में ज़्यादातर लोग जो जेलों में बंद हैं और जिनके ऊपर कोर्ट की कार्यवाही चल रही है, वह ग़रीब,अशिक्षित एवं अति पिछड़े वर्ग के लोग हैं। जिनको अपने अधिकारों के बारे में नहीं पता है। जिसकी वजह से वह जेल की यातनाओं का सामना कर रहे हैं। ऐसे में यह महत्वपूर्ण हो जाता है कि उनको उनके अधिकारों के बारे में न ही सिर्फ बताया जाये बल्कि क़ानूनी सहायता भी प्रदान की जाये। इन्हीं बातों पर जोर देते हुये माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने "कार्ति II बनाम स्टेटऑफ़ बिहार" में यह निर्णय दिया कि- "न्यायाधीश का यह संवैधानिक दायित्व है कि जब भी किसी असक्षम एवं आर्थिक रूप से असहाय अभियुक्त को उनके सामने प्रस्तुत किया जाये, तब वह सर्वप्रथम यह सुनिश्चित कर लें कि अभियुक्त को निःशुल्क क़ानूनी सहायता वकील के माध्यम से मिल रही है कि नहीं,अगर नहीं मिल रही है तो वक़ील का प्रबंध किया जाये, जिसका ख़र्च राज्य के कोष से वहन किया जायेगा।" तो चलिए इस लेख के माध्यम से जानने की कोशिश करते हैं की निःशुल्क क़ानूनी सहायता देने के लिए अभी तक सरकार द्वारा क्या व्यवस्था की गयी है,और वह कौन लोग हैं जो इसके पात्र हैं, और जो इसके पात्र नहीं हैं, साथ ही किन दस्तावेजों की जरूरत पड़ेगी, औरआवेदन करने के लिए कहाँ पर जाना पड़ेगा। जिससे की आपको एवं आपके जानने वालों को निःशुक्ल क़ानूनी सहायता आसानी से मिल सके। संस्थागत व्यवस्था क्या है ? सन 1987 में भारतीय संसद ने "विधिक सेवा प्राधिकरण अधिनियम 1987" को पारित किया जो कि 9 नवंबर 1995 को पूरे देश में लागू किया गया। इस अधिनियम का मुख्य उद्देश्य है कि सभी को न्याय पाने का समान अवसर मिले। समाज का कोई व्यक्ति न्याय पाने से इसलिए वंचित न रह जाये कि वह ग़रीब, दिव्यांग, पिछड़े या फिर अति पिछड़े वर्ग से है। इसलिए इस अधिनियम के माध्यम से क्रमशः राष्ट्रीय, राज्य एवं जिला स्तर पर "विधिक सेवा प्राधिकरण" आपको निःशुल्क क़ानूनी सहायता प्रदान करने के लिए बनाये गए हैं- (1) अगर वादी या प्रतिवादी का मुक़दमा माननीय सर्वोच्च न्यायलय में चल रहा है, तब वह "राष्ट्रीय विधिक सेवा प्राधिकरण" में, या फ़िर सर्वोच्च न्यायलय की "विधिक सेवा समिति" में जाकर क़ानूनी सहायता प्राप्त कर सकता है। आपके लिए दोनों विकल्प खुले हुए हैं। (2) अब अगर आपका मामला किसी राज्य के माननीय उच्च न्यायालय में चल रहा है, तब आप अगर चाहें तो उच्च न्यायालय द्वारा गठित "विधिक सेवा समिति" या फिर उसी प्रदेश में स्थित "विधिक सेवा प्राधिकरण" से क़ानूनी सहायता ले सकते हैं। इसके बाद आपके मामले से सम्बंधित वकील को आपकी विधिक सेवाओं के लिए नियुक्त कर दिया जायेगा। (3) जिन लोगों का मुक़दमा माननीय जिला न्यायालय में चल रहा है, वह लोग ज़िला विधिक सेवा प्राधिकरण में जा सकते हैं। प्रायः यह प्राधिकरण जिला न्यायालय में ही बनाया जाता है। (4)आपको आपके राजस्व न्यायालय में चलने वाले मामलों में भी क़ानूनी सहायता देने के लिए तहसील स्तर पर "विधिक सेवा प्राधिकरण" शुरू किये गये हैं। (5)क़ानून की पढ़ाई करने वाले विद्यार्थियों में भी इस बात को पहुँचाने के लिए देश के लगभग सभी विश्वविद्यालयों व संस्थानों में "विधिक सेवा केंद्र" खोले गये हैं। आप यहाँ पर भी जा के अपने मामले से सम्बंधित विधिक परामर्श ले सकते हैं। प्राधिकरणों की ही तरह इन "विधिक सेवा केंद्रों" का भी अपना एक वकीलों का समूह होता है, जिससे की आपको वकील आसानी से मुहैया कराया जा सके।

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