बुधवार, 31 अक्तूबर 2018

आला हज़रत इमाम अहमद रज़ा फ़ाज़िले बरेलवी का बचपन


#आला_हज़रत_के_बचपन_के_हालात ====================== #आला_हज़रत में तकवा ओ तहारत, इत़्तबाए सुऩ्नत पाकीजा अख़लाक हुस्नो सीरत बचपन ही से पाये जाते हैं। तकरीबन पाँच या छह साल की उम्र का आपका एक वाकया है। आप एक नीचा कुर्ता पहने हुए बाहर से दौलत खाने की तरफ तशरीफ ले जा रहे थे। सड़क पर एक गाड़ी से कुछ तवाइफे बैठी हुई किसी रईस की तकरीब में गाने बजाने के लिये जा रही थी उनका सामना होते ही फौरन आप ने कुर्ते का दामन उठाकर आँखों पर रख लिया। यह देखकर वह तवाइफे हँसने लगी फिर उनमें से एक बोली वाह मियाँ साहबजादे आँखों को छिपा लिया और सतर को खोल लिया। आप ने फौरन जवाब दिया कि जब नजर बहकती है तब दिल बहकता है और जब दिल बहकता है तो सतर बहकता हैं। यह जवाब सुनकर वह सकते में हो गई। आपके इस मुबारक अमल और हैरत अंगेज जवाब से यह सवाल पैदा होता है कि आप नन्ही सी उम्र में इस कद्र फिक्रो शऊर रखते थे तो फिर दामन के बजाए अपने हाथों ही से अपनी आँखें क्यों न बंद कर ली। इस सूरत में आपका सतर बेपर्दा न होता और मकसद भी हासिल होता लेकिन थोड़ी सी तवज्जो के बाद यह बात वाजे हो जाती है कि अगर आप हाथों ही से अपनी आँखें छिपा लेते तो उस तवाइफ का यह मसखरा सवाल न होता और न उसको यह नसीहत आमेज जवाब मिलता और न गुजरने वालों को यह सबक मिलता यानी आप ने जानबूझल कर यह तरीका इख्तेयार फरमाया बल्कि मिनजानिब अल्लाह अपने गैर इरादी तौर पर दामन से आँखें छिपाई कि बचपन की अदा यूँही हुआ करती है। यह और बात है कि इस अदा में इल्मे नफीस के हकाइफ छुपे थे़। 📚(सवानेह आला हज़रत सफ: नम्बर 17,) ====================== #आला_हजरत के बचपन के ज़माने में जो मौलवी साहब आपको पढ़ाया करते थे। एक दिन बच्चों ने उन्हें सलाम किया मौलवी साहब ने जवाब दिया जीते रहो। इस पर आला हज़रत ने मौलवी साहब से फरमाया यह तो सवाल का जवाब नही हुआ। वालेकुम अस्सलाम कहना चाहिये था। मौलवी साहब सुनकर बहुत खुश हुये आपको बहुत दुआँये दीं। एक मरतबा की बात है आला हजरत पढ़ रहे थे कि मौलवी साहब किसी अायते करीमा में बार बार एक लफ़्ज हुजूर को बताते थे मगर आपकी जबान से नहीं निकलता था। वह जबर बताते थे और आप जेर पढ़ते थे। यह कैफियत आला हजरत के दादा हुजूर को मालूम हुई तो उन्होने आला हजरत को अपने पास बुलाया और कलामे पाक मगांकर देखा तो उसमें कातिब की गलती से ज़बर छप गया था। जबकि जेर होना चाहिए था। जेर ही सही था। यानी आला हजरत की जबान से जो निकलता था वह ही सही था। दादा हुजूर ने आला हजरत से पूछा मौलवी साहब जिस तरह बताते थे वैसे क्यों नही पढ़ते थे। अर्ज किया मैं इरादा करता था कि मैं उसी तरह पढू़ँ मगर जबान पर काबू न पाता था। दादा हुजूर ने फरमाया बहुत खूब और मुस्कूरा कर सर पर हाथ फेरा और दिल से दुआंए दी फिर उन मौलवी साहब से फरमाया बच्चा सही पढ़ रहा था कातिब ने गलत लिख दिया है फिर कलम मंगवा कर ठीक फरमा दिया। 📚(सवानेहे आला हजरत सफ: नम्बर 17,) उन्ही मौलवी साहब का बयान है कि इस क़िस्म के वाक़्यात मौलवी साहब को बार बार पेश आए। एक रोज तन्हाई में हुजूर आला हजरत से कहने लगे साहबजादे सच-सच बता दो मै किसी से नही कहूँगा। तुम इन्सान हो या जिऩ्न हो। आप ने फरमाया खुदा पाक का शुक्र है मैं इन्सान हूँ। हाँ अल्लाह तआला का फज्लो करम शामिल है उन्ही का बयान है रमजानुल मुबारक और हुजूर पुरनूर आला हजरत के पहले रोजे की तकरीब है। जहाँ और इन्तेजामात हैं वहाँ एक कमरे में फीरनी के प्याले जमाने के लिए चुने हुए थे। दोपहर का वक़्त है। हुजूर के वालिद -ए- माजिद आपको उसी कमरे में ले जाते है और किवाड़ो को बंद करके एक प्याला उठाकर देते है कि इसे खा लो। आला हजरत अर्ज करते है कि मेरा तो रोजा है कैसे खाऊँ। इरशाद होता है कि बच्चों का रोजा एैसे ही होता है, लो खा लो मैंने किवाड़ बंद कर दिए है, कोई नही देख रहा है। आला हजरत ने फरमाया कि जिसके हुक्म से रोजा रखा है वह तो देख रहा है। यह सुनते ही हुजूर के वालिद -ए- माजिद की आँखों मे आँसू आ गए और कमरा खोलकर बाहर आ गए। छः बरस की उम्र मे आपने मालूम कर लिया था कि बगदाद शरीफ किधर है तब से आपने आखिर दम तक उधर पैर नही किए। 📚(सवानेहे आला हजरत सफः नम्बर 17,)

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